________________
चतुर्थ वक्षस्कार - पंडक वन
- ३१७
उप्पिं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं मूले साइरेगाइं सत्ततीसं जोयणाई परिक्खेवेणं मज्झे साइरेगाइं पणवीसं जोयणाइं परिक्खेवेणं उप्पिं साइरेगाइं बारस जोयणाई परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पिं तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्ववेरुलियामई अच्छा०, सा णं एगाए पउमवरवेइयाए जाव संपरिक्खित्ता इति उप्पिं बहुसमरणिजे भूमिभागे जाव सिद्धाययणं बहुमज्झदेसभाए कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूणगं कोसं उई उच्चत्तेणं अणेगखंभसय जाव धूवकडुच्छुगा मंदर चूलियाए णं पुरथिमेणं पंडगवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते एवं जच्चेव सोमणसे पुव्ववण्णिओ गमो भवणाणं पुक्खरिणीणं पासायवडेंसगाण य सो चेव णेयव्वो जाव सक्कीसाणवडेंसगा तेणं चेव परिमाणेणं।
भावार्थ - हे भगवन्! मंदर पर्वत पर पंडकवन किस स्थान पर वर्णित हुआ है? ... हे गौतम! सौमनस वन के अति समतल एवं सुन्दर भूमिभाग से ३६००० योजन ऊपर जाने पर मंदर पर्वत के शिखर पर पंडकवन वर्णित हुआ है। चक्र की तरह गोलाकार यह ४६४ योजन विस्तीर्ण है। इस प्रकार यह कंकण के आकार का है। यह मंदर पर्वत की चूलिकाओं को चारों
ओर से घेरे हुए हैं। उसकी परिधि ३१६२ योजन से कुछ अधिक है। वह एक पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड द्वारा आवृत्त है। वह कृष्णवर्ण एवं कृष्ण आभा लिए हुए है यावत् देव-देवियाँ वहाँ आश्रय लिये हुए हैं। पंडकवन के ठीक बीच में मंदर-चूलिका बतलाई गई है। वह चालीस योजन ऊंची है। वह मूल में बारह योजन, मध्य में आठ तथा ऊपर चार योजन चौड़ी है। मूल में उसकी परिधि सैंतीस योजन से कुछ अधिक तथा ऊपर बारह योजन से कुछ अधिक है। यह मूल में चौड़ी, मध्य में संकड़ी तथा ऊपर पतली है। इसका संस्थान गोपुच्छ के तुल्य है। यह सर्वथा वैदूर्य-नीलम रत्न निर्मित स्वच्छ एवं उज्वल यावत् वह एक पद्मवर वेदिका (तथा एक वनखण्ड) द्वारा चारों ओर से घिरी है।
ऊपर अतिसमतल तथा रमणीय भूमिभाग है यावत् उसके बीचोंबीच सिद्धायतन है। वह एक कोश लम्बा, अर्द्धकोश चौड़ा तथा एक कोश से कुछ ऊँचा है। यह सैकड़ों खंभों पर अवस्थित है यावत् धूपदानों से सुरभित है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org