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प्रथम वक्षस्कार - जंबूद्वीप के भव्य द्वार
(८) कहि णं भंते! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते?
गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई वीइवइत्ता जंबुद्दीवदीवपुरथिमपेरंते लवणसमुद्दपुरथिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीआए महाणईए उप्पिं एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते, अट्ट जोयणाई उढे उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेए वरकणगथूभियाए, जाव दारस्स वण्णओ जाव रायहाणी। एवं चत्तारि वि दारा, सरायहाणिया जाणियव्वा।
शब्दार्थ - तावइयं - उतना ही, सेए - श्रेष्ठ, थूभिया - शिखर।
भावार्थ - हे भगवन्! जंबूद्वीप नामक द्वीप के 'विजय' नामक द्वार की स्थिति कहाँ बतलाई गई है?
हे गौतम! जंबूद्वीपगत मंदर पर्वत की पूर्व दिशा में पैंतालीस सहस्र योजन आगे जाने पर, जंबूद्वीप के पूर्वान्त में एवं लवण समुद्र के पूर्वार्द्ध के पश्चिम में, सीता महानदी पर जंबूद्वीप का विजय नामक द्वार बतलाया गया है। वह ऊँचाई में आठ योजन तथा चौड़ाई में चार योजन है। उसमें प्रवेश मार्ग भी उतना ही चौड़ा-चार योजन का है। वह द्वार श्रेष्ठ स्वर्णनिर्मित स्तूपिकाओंशिखरों से युक्त है यावत् द्वार एवं राजधानी का वर्णन उसी प्रकार यहाँ योजनीय है, जैसा पूर्व आगमों में आया है। इस प्रकार राजधानी सहित चारों द्वारों का वर्णन कथनीय है।
(E) जंबुद्दीवस्स णं भंते! दीवस्स दारस्स य दारस्स य केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते?
गोयमा! अउणासीइं जोयणसहस्साई बावण्णं च जोयणाई देसूणं च अद्धजोयणं दारस्स य दारस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते -
अउणासीइं सहस्सा बावण्णं चेव जोयणा हंति। ऊणं च अद्धजोयणं दारंतरं जंबुद्दीवस्स॥१॥
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