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________________ २१२ __ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र अष्टापद पर्वत पर पहुँचे। अष्टापद पर्वत पर धीरे-धीरे चढ़े, सघन बादलों के सदृश श्याम तथा देवों के आवागमन से युक्त पृथ्वी शिलापट्टक का प्रतिलेखन किया, उसे स्वच्छ, परिमार्जित किया। वहाँ संलेखना - शरीर कषाय क्षयकारी तपोविशेष अंगीकार किया, आहार पानी का परित्याग किया। पादोपगत - पेड़ की कटी हुई डाली की ज्यों शरीर को सर्वथा निष्प्रकंप रखते हुए जीवन और मृत्यु की आकांक्षा से सर्वथा अतीत रहते हुए आत्माभिरत रहे। ____ केवली भरत सत्तत्तर लाख वर्ष पर्यन्त कौमार्यावस्था में राजकुमार के रूप में रहे। एक सहस्र वर्ष पर्यन्त मांडलिक राजा के रूप में रहे। एक सहस्त्र वर्ष कम छह लाख पूर्व तक महाराजा - चक्रवर्ती सम्राट के रूप में रहे। वे कुल तिरासी लाख पूर्व पर्यन्त गृहस्थ जीवन में रहे। कुछ कम एक लाख पूर्व तक वे सर्वज्ञावस्था - केवली रूप में रहे। एक लाख पूर्व तक उन्होंने समस्त श्रमण जीवन का पालन किया। उनका समग्र आयुष्य चौरासी लाख पूर्व का था। उन्होंने एक मास के चौविहार-अनशन द्वारा वेदनीय, आयुष्य, नाम तथा गोत्र इन चार अघाति कर्मों का क्षय हो जाने पर, श्रवण नक्षत्र से जब चन्द्रमा का योग था, शरीर का त्याग किया। जन्म, वृद्धावस्था तथा मरण के बंधन को छिन्न कर वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत-परिनिर्वाण प्राप्त, अन्तकृत-आवागमन रूप सर्वदुःखों के नाशक हुए। भरत चक्रवर्ती का चरित्र-वृत्तांत यहाँ समाप्त हुआ। विवेचन - भरत के जीवन का जो चित्रण यहाँ हुआ है, वह सांसारिक सुखों के . भोगोपभोग की पराकाष्ठा का उत्कृष्टतम रूप लिए हुए है। इतने योगों में अभिरत रहने वाले पुरुष के जीवन में मुहूर्त मात्र में, एकाएक इतना परिवर्तन आ जाए, यह कैसे संभव है? ऐसा प्रश्न जन साधारण के मन में सहसा उपस्थित होता है। किन्तु यहाँ जैन दर्शन में निरूपित आत्मा के परम पराक्रम, शक्ति, ऊर्जा, तेज और बलमय स्वरूप की दृष्टि से विचार करने पर सहज ही इसका समाधान प्राप्त हो जाता है। ज्योंही आत्मा की सुषुप्त शक्ति जागृत हो उठती है, आसक्ति, ममता और मोह के बंधन तडातड़ टूटने लगते हैं। पूर्वो तक के दीर्घ काल में न सध पाने वाले कार्य क्षणों में सिद्ध हो जाता है। वहाँ गणित द्वारा स्वीकृत क्रमबद्ध विकास का सिद्धान्त लागू नहीं होता। आत्मतेज की प्रोज्वलता जब तीव्रतम अवस्था में परिणत हो जाती है तो आत्मेतर जड़, पुद्गलों के पर्वत के पर्वत क्षण मात्र में ढह जाते हैं धूलिसात हो जाते हैं। यही सम्राट भरत के साथ घटित हुआ। भोगों के सुख का वह पूर्वो तक अनुभव कर चुका था। किन्तु ज्यों ही अध्यात्म सुख के अनिर्वचनीय आस्वाद को वह अनुभूत करने लगा, सभी भोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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