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. तृतीय वक्षस्कार - भरत क्षेत्र का नामकरण
२१३ *-*-12-R--1904-198-81-4-28-34-28-026-24-28-122-12-12-2-8-4-28-34-28-04-24-12---12-06-18-24---*-18-22-12--14सहज ही छूट गए क्योंकि भोगमय जीवन तो वैभाविक है, आत्म-स्वभाव के उद्बुद्ध होने पर विभाव अपने आप मिट जाता है, भरत जिस प्रकार सांसारिक जीवन के परम पराक्रमी और महाविजेता था उसी प्रकार उसने मुहूर्त भर में जीवन के क्रम को सर्वथा परिवर्तित कर यह कर दिखाया कि आध्यात्मिक बल में भी वह किसी प्रकार कम नहीं है।
नोट - जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के इस तृतीय वक्षस्कार में भरत चक्रवर्ती का विस्तृत वर्णन किया गया है जिसमें उनके स्नान, मंजन, वस्त्रादि परिधान, दिग्विजय तथा शीशमहल में केवलज्ञान प्राप्त करने आदि का तो कथन है किन्तु मंदिर के लिए एक शब्द भी नहीं है और कहीं पर भी भरत राजा के द्वारा अष्टापद तीर्थ पर ऋषभ आदि की चिताओं पर मंदिर बनाने का उल्लेख नहीं आया है। अतः कथा ग्रन्थों की यह बात विश्वसनीय नहीं है।
भरत क्षेत्र का नामकरण
(८८) . भरहे य इत्थ देवे महिड्डिए महज्जुईए जाव पलिओवमट्ठिईए परिवसइ, से एएणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-भरहे वासे २ इति। ।
अदुत्तरं च णं गोयमा! भरहस्स वासस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ ण आसि ण कयाइ णत्थि ण कयाइ ण भविस्सइ भुविं च भवइ य भविस्सइ य धुवे णियए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे भरहे वासे।
॥ तइओ वक्खारो समत्तो॥ भावार्थ - यहाँ भरत में महान् समृद्धिशाली, उद्योतमय यावत् पल्योपम परिमित आयुष्य युक्त भरत नामक देव निवास करता है।
..' हे गौतम! इस कारण यह क्षेत्र भरत वर्ष या भरत क्षेत्र कहा जाता है। हे गौतम! एक अन्य हेतु भी है। भरतक्षेत्र शाश्वत नाम है। यह कभी नहीं था, कभी नहीं है तथा न कभी होगा-ये तीनों ही उस पर लागू नहीं है, क्योंकि यह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय एवं नित्य है।
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॥ तृतीय वक्षस्कार समाप्त॥
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