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________________ तृतीय वक्षस्कार सर्वज्ञत्व का प्राकट्य सण्णिगासं देवसण्णिवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ २ त्ता संलेहणाझूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे विहरइ । तणं से भर केवली सत्तत्तरिं पुव्वसयसहस्साइं कुमार-वासमज्झे वसित्ता एगं वाससहस्सं मंडलियरायमज्झे वसित्ता छ पुव्वसयसहस्साइं वाससहस्सूणगाई महारायमज्झे वसित्ता तेसीइपुव्वसयसहस्साइं अगारवासमज्झे वसित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं देसूणगं के वलिपरियायं पाउणित्ता तमेव बहुपडिपुण्णं सामण्णपरियायं पाउणित्ता चउरासीइपुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं पाउणित्ता मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं सवणेणं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं खीणे वेयणिज्जे आउए णामे गोए कालगए वीइक्कंते समुज्जाए छिण्णजाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुते परिणिव्वुडे अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे । ॥ इइ भरहचक्किचरियं समत्तं ॥ शब्दार्थ - झूसणा झूसिए - शरीर एवं कषाय को क्षीण बनाते हुए, अणवकंखमाणे अनाकांक्षा युक्त, देसूणगं - कुछ कम, अज्झवसाणेहिं - अध्यवसायों से । भावार्थ अन्य किसी दिन राजा भरत स्नानागार में प्रविष्ट हुआ यावत् चन्द्रमा की तरह प्रिय दिखलाई देते हुए वहाँ से बाहर निकला । यहाँ से आदर्श गृह- शीश महल में गया एवं पूर्वाभिमुख होकर सिंहासनासीन हुआ । सिंहासन पर बैठा हुआ राजा शीश महल में देहमान के अनुरूप दर्पण में अपने प्रतिबिम्ब को बार-बार देखता रहा । तदनंतर शुभ होते परिणामों, प्रशस्त अध्यवसायों, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं, ईहा, अपोह, मार्गण, गवेषण के परिणाम स्वरूप आगे बढ़ते हुए चिंतन- विमर्श के फलस्वरूप कर्मावरणों के क्षय से, कर्मरज के खिर जाने से अपूर्वकरण में प्रविष्ट राजा भरत को अनंत, अनुत्तर, बाधा रहित, आवरण रहित, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवल ज्ञान, केवल दर्शन समुत्पन्न हुए । भरत केवली ने स्वयमेव अपने आभरण एवं अलंकार उतारे एवं स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया। लोच करने के बाद राजा भरत आदर्श महल से बाहर निकला, अंतःपुर के बीचों-बीच होता हुआ राजभवन से प्रतिनिष्क्रांत हुआ । श्रेष्ठ दस हजार राजाओं से घिरा हुआ केवली भरत विनीता राजधानी के ठीक मध्य से निकला । ये सभी मध्य देश में सुखपूर्वक विहार करते हुए Jain Education International - For Personal & Private Use Only २११ - www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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