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________________ तृतीय वक्षस्कार - विपुल ऐश्वर्य एवं सुखोपभोगमय विशाल राज्य २०६ गामकोडीणं णवणउईए दोणमुहसहस्साणं अडयालीसाए पट्टणसहस्साणं चउव्वीसाए कब्बडसहस्साणं चउव्वीसाए मडंबसहस्साणं वीसाए आगरसहस्साणं सोलसण्हं खेडसहस्साणं चउदसण्हं संवाहसहस्साणं छप्पण्णाए अंतरोदगाणं एगूणपण्णाए कुरज्जाणं विणीयाए रायहाणीए चुल्लहिमवंतगिरिसागरमेरागस्स केवलकप्पस्स भरहस्स वासस्स अण्णेसिं च बहूणं राईसरतलवर जाव सत्थवाहप्पभिईणं आहेवच्चं पोरेवच्चं भट्टित्तं सामित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे ओहयणिहएसु कंटएसु उद्धियमलिएसु सव्वसत्तुसु णिजिएसु, भरहाहिवे णरिंदे वरचंदणचच्चियंगे वरहाररइयवच्छे वरमउडविसिट्ठए वरवत्थ-भूसणधरे सव्वोउयसुरहि-कुसुमवरमल्लसोभियसिरे वरणाडगणाडइज्जवरइत्थिगुम्मसद्धिं संपरिवुडे सव्वोसहि-सव्वरयण-सव्वसमिइ-समग्गे संपुण्णमणोरहे हयामित्तमाणमहणे पुव्वकयतवप्पभाव-णिविट्ठ-संचियफले भुंजइ माणुस्सए सुहे भरहे णामधेजेत्ति। __शब्दार्थ - दंति - हाथी, अंतरोदगाणं - जल के अन्तर्वर्ती निवास स्थान, कुरजाणं - कुत्सित राज्यों, भील आदि आदिवासी प्रदेशों, भट्टित्तं - प्रभुत्व, आणाइसर - आज्ञेश्वर, ओहयणिहएसु - अवहेलना करने योग्य, कंटएसु - गोत्रज शत्रु। भावार्थ - तत्पश्चात् राजा भरत चौदह रत्नों, नौ महानिधियों, सोलह सहस्र देवताओं, बत्तीस सहस्र राजाओं, बतीस सहस्र ऋतु कल्याणिकाओं, बत्तीस सहस्र जनपद कल्याणिकाओं, बत्तीस-बत्तीस नाट्याभिनयों से सज्जित बत्तीस हजार नाटक मण्डलियों, तीन सौ साठ पाचकों, अठारह श्रेणी-प्रश्रेणी जनों, चौरासी लाख घोड़ों, चौरासी लाख हाथियों, चौरासी लाख रथों, छियानवें करोड़ मनुष्यों, बहत्तर हजार उत्तम नगरों, बत्तीस हजार जनपदों, छियानवें करोड़ गांवों, निन्यानवें हजार द्रोणमुखों, अड़तालीस हजार पत्तनों, चौबीस हजार कर्बटों, चौबीस हजार मंडबों, बीस हजार आकरों, सोलह हजार खेटों, चौदह हजार संबाधों, छप्पन अन्तरोदकों, उनपचास कुराज्यों, विनीता राजधानी, एक तरफ चुल्लहिमवान् पर्वत एवं तीन ओर से समुद्र से घिरे हुए सम्पूर्ण भरत क्षेत्र का, अन्य बहुत से माण्डलिक राजा ऐश्वर्यशाली पुरुषों, राज्य सम्मानित विशिष्टजनों यावत् सार्थवाह आदि - इन सभी का आधिपत्य, नेतृत्व, प्रभुत्व, स्वामित्व एवं महत्तरत्व-अधिनायकत्व करता हुआ, आज्ञेश्वर-आज्ञा देने का सामर्थ्य रखते हुए, सेनापतित्व का भाव धारण किए हुए, सभी का सम्यक् पालन करते हुए राज्य करता रहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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