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जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
ज्यों लाखों, करोड़ों कोड़ाकोड़ी पूर्वो तक उत्तर दिशा में चुल्लहिमवान् पर्वत तथा अन्य तीन दिशाओं में मर्यादित संपूर्ण भरत क्षेत्र के ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, सन्निवेश इन सब में निवास करने वाले प्रजाजनों का भलीभांति पालन कर यशस्वी बनते हुए, इनका आधिपत्य, नेतृत्व यावत् इनका निर्वाह करते हुए सुखपूर्वक राज्य भोग करें। यों कहकर उन्होंने जय-जय शब्दों को प्रयुक्त किया।
तब राजा भरत का हजारों स्त्री-पुरुष अपने नेत्रों से पुनः-पुनः दर्शन कर रहे थे, वचनों द्वारा पुनः-पुनः संस्तवन कर रहे थे, हृदय से बार-बार अभिनंदन कर रहे थे, अपने मनोरथों को व्यक्त कर रहे थे, उसकी कांति, रूप एवं सौभाग्य आदि गुणों के कारण बार-बार उनको प्राप्त करने की इच्छा कर रहे थे। हजारों अंगुलियों-हाथों द्वारा हजारों नर-नारी राजा को प्रणाम कर रहे थे। अपना दाहिना हाथ ऊँचा उठाकर बार-बार स्वीकार करता हुआ, हजारों भवनों की पंक्तियों को देखता हुआ, वीणा, ढोल, तुरही की मधुर, मनोहर, सुंदर ध्वनि में तन्मय होता हुआ, आनन्द लेता हुआ, अपने सुंदर प्रासाद के द्वार के पास आभिषेक्य हस्ति रत्न को रोका
और नीचे उतरा तथा सोलह हजार देवों, बत्तीस हजार राजाओं, सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्द्धकरत्न तथा तीन सौ साठ पाचकों, अठारह श्रेणी-प्रश्रेणीजनों का एवं अन्य बहुत से मांडलिक राजाओं यावत् सार्थवाहों आदि का सत्कार-सम्मान किया। इन सबको सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया। सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न, बत्तीस हजार ऋतुकल्याणिकाओं, बत्तीस हजार जनपद कल्याणिकाओं, बत्तीस बत्तीस नाट्यविधिक्रमों से संबद्ध बत्तीस हजार नाटक मंडलियों से घिरा हुआ राजा, जिस प्रकार कुबेर कैलाश पर्वत के शिखर पर अपने आवास में जाता है, उसी प्रकार (राजा) अपने उत्कृष्ट भवन में गया।
राजा भरत ने अपने मित्रों, निजक-माता-पिता आदि पारिवारिकों, संबंधियों से कुशलक्षेम पूछा। वैसा कर वह स्नानागार में गया यावत् स्नानागार से बाहर निकला तथा भोजन मंडप में आकर सुखासन पर स्थित हुआ। तेले की तपस्या का पारणा किया। तदुपरांत अपने ऊपर के प्रासाद में गया जहाँ मृदंग आदि बज रहे थे, बत्तीस प्रकार की नाट्य विधियों से निबद्ध नृत्य हो रहे थे, गान हो रहे थे। राजा उनका आनंद लेता हुआ यावत् मनुष्य भव संबंधी कामभोगों का सेवन करता हुआ, सुखपूर्वक रहने लगा।
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