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________________ तृतीय वक्षस्कार राजधानी में प्रत्यार्वतन Jain Education International - पालन में तत्पर रहा। तेले की तपस्या के पूर्ण हो जाने पर राजा भरत पौषधशाला से प्रतिनिष्क्रांत हुआ। कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया तथा शिखर के समान उत्तम गजपति पर आरूढ हुआ । यहाँ से आगे का वर्णन विनीता राजधानी से विजय अभियान हेतु जाने के वर्णन सदृश है। केवल इतना अंतर है - विनीता राजधानी में प्रवेश करने के समय नौ महानिधियाँ तथा चार सेनाएँ राजधानी में प्रविष्ट नहीं हुई। इनके अतिरिक्त बाकी का वर्णन पूर्ववत् है यावत् राजा भरत ने गंभीर निर्घोष - तुमुल वाद्य ध्वनि के साथ विनीता राजधानी के बीचोंबीच चलते हुए जहाँ अपना पैतृक आवास स्थान था, सर्वोत्कृष्ट प्रासाद का बाहरी द्वार था, उस ओर गमन करने का निश्चय किया। जब राजा भरत विनीता राजधानी के मध्य भाग से होता हुआ निकल रहा था, उस समय कतिपय देव विनीता राजधानी के बाह्य और आभ्यंतर भाग में जल का छिड़काव कर रहे थे, गोमय आदि का लेप कर रहे थे तथा मंचातिमंचों की रचना कर रहे थे, इसी प्रकार कई देव तरह-तरह के रंगों के कपड़ों से बनी, ऊँची ध्वजाओं एवं पताकाओं से नगर को सजा रहे थे। कुछेक देव दीवारों को लीप रहे थे, पोत रहे थे यावत् अनेक उत्कृष्ट, सुगंधित द्रव्यों द्वारा वातावरण को सुरभिमय बना रहे थे, जिससे धूम के गोल-गोल छल्ले बन रहे थे। कई चाँदी की वर्षा, कतिपय देव स्वर्ण, रत्न, हीरों और आभूषणों की वर्षा कर रहे थे। जब राजा भरत विनीता राजधानी के बीचोंबीच से निकल रहा था तब नगरी के सिंघाटकसिंघाड़े की ज्योंतिकाने यावत् बड़े-बड़े राजमार्गों पर अर्थ चाहने वाले, कामार्थी -सुख या सुंदर काम भोगों के अभिलाषी, भोग के आकांक्षी, लाभार्थी, ऋद्धि चाहने वाले, किल्विषक- भांड आदि, कारोडिक - कापालिक - हाथ में खप्पर रखने वाले, करबाधित राज्य के कर आदि से कष्ट पाने वाले, शांखिक- शंखवादक, चाक्रिक-चक्रधारी, लांगलिक-हलधारी, मुखमांगलिक - मुख से मंगलमय वचन बोलने वाले, पुष्यमानव-भाट, चारण आदि स्तुति गायक, वर्द्धमानक-दूसरों के कंधों पर स्थित पुरुष, लंख - बांस के सिरे पर चढ़कर खेल दिखाने वाले, मंख-चित्रयुक्त पट दिखलाकर आजीविका चलाने वाले ये सब उदार, प्रिय, कमनीय, प्रीतिकर, मनोज्ञ, चित्तप्रसादक, कल्याणमय, धन्य- श्लाघनीय, मंगल युक्त, शोभायुक्त, हृदयंगम, हृदयाह्लादक वाणी से एवं मंगलोपेत शब्दों द्वारा राजा का निरंतर अभिनंदन, अभिस्तवन करते हुए इस प्रकार बोले- हे राजन्! आप सर्वदा जयशील हों। आपका श्रेयस् हो । अब तक जिनको नहीं जीता है, उन पर आप विजय प्राप्त करें। देवों में इन्द्र, तारों में चन्द्र, असुरों में चमरेन्द्र, नागों में धरणेन्द्र की १६७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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