SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम वक्षस्कार मौखिक परंपरा से सुरक्षित रहे हैं। गुरुजन से शिष्य श्रवण करते और अपनी स्मृति में बनाए रखते। विस्तृत आगमों को कंठस्थ रखने में सुविधा रहे इस हेतु नगर, चैत्य, उद्यान, राजा, रानी इत्यादि का एक सर्वसामान्य वर्णन क्रम मान लिया गया। जहाँ भी इनका वर्णन आए, वहाँ यथास्थान उसे जोड़ लिया जाए, ऐसी शैली अपनाई गई । यद्यपि सभी नगर, राजा, उद्यान आदि एक समान नहीं होते किन्तु फिर भी साधारणतया उनमें सदृशता दृष्टिगोचर होती है । Jain Education International चैत्य इस सूत्र में आया हुआ 'चैत्य' शब्द अनेक अर्थों का सूचक है। इस संबंध में विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से भिन्न-भिन्न रूप में व्याख्यात किया है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से इस पर विचार किया जाय तो कुछ विशेष तथ्य परिलक्षित होते हैं। इस शब्द के मूल में 'चिति' शब्द है । चिति शब्द चिता का द्योतक है। मृत व्यक्ति को जलाया जाता है, उसे चिता कहा जाता है । मृत व्यक्ति के प्रति उसके पारिवारिक जनों के मन में श्रद्धा, स्नेह या आदर होता है । अतः उसकी स्मृति के किसी चिह्न को बनाए रखने का उनमें सहज भाव प्राप्त होता है । प्राचीनकाल में जहाँ किसी मृत व्यक्ति को जलाया जाता, वहाँ उसकी स्मृति में वृक्ष लगाने की परंपरा रही हो, ऐसा अनुमान है। तदनुसार चैत्य का एक अर्थ वृक्ष है। पारिवारिकजन उस वृक्ष को देखकर अपने मृत संबंधी की स्मृति करते रहे हों। समय और स्थिति के अनुसार जन मानस भी परिवर्तित होता रहता है। मृतजन की स्मृति को और अधिक स्थिर बनाए रखने हेतु वृक्ष के स्थान पर एक पीठिका या मकान का निर्माण कराया जाने लगा । लोक मानस आगे चलकर इतने से ही परितुष्ट नहीं हुआ। उसमें सजीवता लाने के लिए, उसे आवागमन का केन्द्र बनाने के लिए संभवतः लौकिक देव या यक्ष आदि की प्रतिमा भी स्थापित की जाने लगी । यों चैत्य का अर्थ भवन, देवस्थान या यक्षायतन के रूप में परिवर्तित हुआ । पुनश्च, लोगों ने वहाँ उद्यान आदि का निर्माण कर उसे विशाल रूप दे दिया, जिससे उनके आराम - विश्राम, गोष्ठी, आयोजन बाहर से आने वाले लोगों के आवास-स्थान आदि में भी प्रयोग होने लगा। नगर से बाहर होने के कारण प्रायः साधु-संतों के ठहरने के लिए उसकी विशेष उपयोगिता सिद्ध हुई । आगमों में भगवान् महावीर स्वामी तथा अन्य महापुरुषों का चैत्य स्थानों, उद्यानों में ठहरने का वर्णन प्राप्त होता है। - ३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy