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________________ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का वहाँ पदार्पण हुआ। उनके दर्शन, उपदेश - श्रवण हेतु परिषद् उपस्थित हुई । भगवान् ने धर्मोपदेश दिया, जिसे श्रवण कर जनपरिषद् वापस लौट गई। विवेचन इस सूत्र में काल और समय इन दो शब्दों का जो प्रयोग हुआ है, उसका विशेष अभिप्राय है । सामान्यतः लोकभाषा में ये दोनों शब्द एक सदृश अर्थ के द्योतक है। जैन पारिभाषिक शब्दावली की दृष्टि से यदि सूक्ष्मता से देखा जाय तो उनमें अन्तर भी है। काल शब्द वर्तना लक्षण- सामान्य समय का सूचक है तथा समय शब्द काल के सूक्ष्मतम अंश का बोधक है। इस सूत्र में इन दोनों शब्दों का इस अपेक्षा से प्रयोग नहीं हुआ है। जैन आगमों का उद्देश्य जनसाधारण में तत्त्वबोध देना रहा । अतएव वहाँ विशेष रूप से वर्णन में ऐसी शैली प्राप्त होती है, जिसमें एक ही बात को समानार्थ द्योतक अनेक शब्दों के प्रयोग द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया जाता रहा है। इसे पुनरुक्त दोष नहीं कहा जा सकता । तत्त्व को सरलतम, सर्वसुलभ शैली में व्यक्त करना इसका आशय है। यहाँ काल और समय शब्द का प्रयोग घटनाक्रम की समयावधि को स्पष्ट करने की दृष्टि से हुआ है। काल शब्द कालचक्र गत अवसर्पिणी से संबद्ध है तथा समय शब्द उसी अवसर्पिणी संबद्ध काल को घटना के साथ जोड़ता है। · : वैदिक, जैन एवं बौद्ध इन तीनों ही परंपराओं के प्राचीन साहित्य में मिथिला नगरी का उल्लेख हुआ है। यह विदेह की राजधानी थी । वैदिक परंपरा के अनुसार सीता के पिता जनक यहीं के राजा थे। जो गृहस्थ में रहते हुए भी उच्च कोटि के अध्यात्मनिष्णात राजयोगी थे। ज्ञातृधर्मकथा सूत्र में विदेह की राजधानी मिथिला का वर्णन आया है। जहाँ के राजा कुंभ के यहाँ तीर्थंकर मल्ली का जन्म हुआ। उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णित नमि राजर्षि भी मिथिला के ही राजा थे, जिन्होंने राज्य वैभव का परित्याग कर श्रमण जीवन स्वीकार किया। वे अत्यंत निस्पृह, साधना परायण, तपोमय जीवन के महान् धनी थे । वर्तमान में उत्तरी बिहार का दरभंगा जिला मुख्यतः मिथिला के अंतर्गत है । यह भू भाग प्राचीन काल से ही विद्या, साहित्य और संस्कृति का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है। aणओ इस सूत्र में नगरी, चैत्य, राजा और रानी का उल्लेख मात्र हुआ है। इनका वर्णन नहीं दिया गया है। वण्णओ शब्द द्वारा अन्यत्र आए हुए वर्णन को यहाँ गृहीत करने की सूचना की गई है। ऐसा करने का एक विशेष अभिप्राय है। प्राचीन काल में जैन आगम Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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