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तृतीय वक्षस्कार - रत्न चतुष्टय द्वारा सुरक्षा
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गाहाओ - वसुहर गुणहर जयहर, हिरिसिरिधीकित्तिधारगरिंद।
लक्खणसहस्सधारग रायमिदं णे चिरं धारे॥१॥ हयवइ गयवइ णरवइ णवणिहिवइ भरहवासपढमवई। बत्तीसजणवयसहस्सराय सामी चिरं जीव॥२॥ पढमणरीसर ईसर हियईसर महिलियासहस्साणं। देवसयसाहसीसर चोहसरयणीसर जसंसी॥३॥ सागरगिरिमेरागं उत्तरवाईणमभिजियं तुमए।
ता अम्हे देवाणुप्पियस्स विसए परिवसामो॥४॥ - अहो णं देवाणुप्पियाणं इड्डी जुई जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए, तं दिट्ठा णं देवाणुप्पियाणं इट्ठी एवं चेव जाव अमिसमण्णागए, तं खामेमु णं देवाणुप्पिया! खमंतु णं देवाणुप्पिया! खंतुमरहंतु णं देवाणुप्पिया! णाइ भुजो २ एवं करणयाए तिकटु पंजलिउड़ा पायवडिया भरहं रायं सरणं उविंति।
तए णं से भरहे राया तेसिं आवाडचिलायाणं अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छइ . २ ता ते आवाडचिलाए एवं वयासी-गच्छह णं भो तुन्भे ममं बाहुच्छायापरिग्गहिया णिब्भया णिरुव्विग्गा सुहंसुहेणं परिवसह, णत्थि भे कत्तोवि भयमस्थित्तिकट्ट सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसजेइ।
तए णं से भरहे राया सुसेणं सेणावई सद्दावेइ २ ता एवं वयासी-गच्छाहि णं भो देवाणुप्पिया! दोच्चंपि सिंधूए महाणईए पच्चत्थिमं णिक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि य ओअवेहि २ त्ता अग्गाइं वराई रयणाई पडिच्छाहि २ ता मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणाहि जहा दाहिणिल्लस्स ' ओयवणं तहा सव्वं भाणियव्वं जाव पच्चणुभवमाणे विहरइ।
शब्दार्थ - सण्णज्झिउं - सन्नद्ध-तत्पर, थाणह - जानते, अहव - अन्यथा, चित्तं - त्यक्तं-गया हुआ, पडिसाहरंति - समेट लिया, उद्दवित्तए - रोका जाना, ओचूल - चूते हुए,
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