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तृतीय वक्षस्कार - आपात किरातों द्वारा भीषण संघर्ष
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१६५ *--*-*-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-50-50-10-02--8-12--0-0-0-08-2-2-8-0-0-0-0-0-0--12-0-0-12-12-
अणुय - छोटे, तणुय - पतले, सिग्घगइ - शीघ्रगामी, जइण - जीतने वाला, इसि - ऋषि, हुयवह - अग्नि, पंसु - मिट्टी, चंडपाइय - शत्रु द्वारा न गिराये जाने योग्य, अणंसुपाई
आंसू न गिराने वाला, कालहेसिं - उचित समय पर हिनहिनाने वाला, मल्लि-मोगरा, हाणिनाक, पहोय - शाण-धार करने का आधार।
भावार्थ - सेनापति सुषेण ने राजा भरत की यावत् सेना की अग्रिम पंक्ति के बहुत से योद्धाओं को आपात किरातों द्वारा हत-विहत यावत् जान बचाकर बड़े कष्ट के साथ एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर भागते देखा तब वह अत्यंत क्रोध, रोष से तमतमाते हुए विकराल हो उठा, कमलामेल नामक अश्वरत्न पर आरूढ हुआ। वह अश्व ऊँचाई में अस्सी अंगुल था। उसके मध्य भाग की परिधि निन्यानवें अंगुल थी। उसकी लम्बाई एक सौ आठ अंगुल थी। उसका मस्तक बत्तीस अंगुल प्रमाण था। उसके कान चार अंगुल, उसकी बाहा-मस्तक और घुटनों के बीच का भाग बीस अंगुल, घुटने चार अंगुल, जंघा सोलह अंगुल, खुर चार अंगुल, शरीर का मध्य भाग ऊपर से नीचे संकरा, मध्य में कुछ चौड़ा था। उसकी पीठ की विशेषता थी कि सवार के आरूढ होने पर वह एक अंगुल झुक जाती थी। वह देह प्रमाण संगत स्वभावतः दोष रहित, प्रशस्त, विशिष्ट-उत्तम अश्व के लक्षणों से युक्त थी। वह हरिणी के घुटनों की ज्यों उन्नत, दोनों पार्श्व भागों की ओर विस्तीर्ण तथा दृढ़ थी। उसका शरीर बेंत, लता, चर्म चाबुक आदि के प्रहारों से रहित था। अश्वरोही के इच्छानुरूप चलने के कारण इनसे ताड़ित करने की आवश्यकता ही नहीं होती थी। उसकी लगाम स्वर्ण जटित दर्पण सदृश थी। काठी बांधने हेतु प्रयोग में आने वाली रस्सी, जो घोड़े के पेट से लेकर पृष्ठ भाग में बांधी जाती है, स्वर्णघटित सुंदर फूलों तथा दर्पणों से सज्जित थी, विविध रत्नमय थी। उसकी पीठ स्वर्णयुक्त, मणिमय तथा स्वर्णपत्रक संज्ञक घंटियों और मोतियों की लड़ों से शोभित थी। जिनके कारण वह अश्व बड़ा ही मनोज्ञ प्रतीत होता था। मुखालंकरण हेतु कर्केतन, इन्द्रनील, पन्ना
आदि रत्नों द्वारा निर्मित तथा माणिक्य रत्न के साथ पिरोए गए सूत्र से मुख पर पहनाए गए विशेष आभूषणों से वह अश्व अलंकृत था। स्वर्ण रचित कमलाकार तिलक से उसका मुख सुसज्जित था। वह अश्व देवमति–दैविक प्रज्ञा से विरचित था। वह गति एवं सौन्दर्य में देवराज
इन्द्र के श्रेष्ठ अश्व-उच्चैश्रवा के तुल्य था। अपने मस्तक, गले, ललाट, मौलि तथा कर्णों के . मूल में लगाई गई कलंगियों के समवेत रूप में धारण किए था। इन्द्र का वाहन उच्चैश्रवा जहाँ · आकाशगामी होता है, यह स्थलगामी था। उसकी आँखें दोष रहित होने के कारण मिली हुई
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