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________________ १६२ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र शब्दार्थ - आवाड - आपात, चिलाय - किरात, दित्ता - तेजस्वी, वित्ता - विख्यात, आओग-पओग - व्यापारिक दृष्टि से धन का उचित विनियोग, विच्छड्डिय - बचा हुआ, पउर - प्रचुर, भत्तपाण - खाद्य सामग्री, गवेलग - बैल, विक्कंता- विक्रमशाली, लद्धलक्खालब्धलक्ष्य-लक्ष्य पूरा करने वाले, पायवा - पादप, अभिक्खणं - धीरे-धीरे, उवद्दव - उपद्रव, विसयस्स - देश पर। भावार्थ - उस समय उत्तरार्द्ध भरत क्षेत्र में आपात नामक किरात-भील या आदिवासी रहते थे। वे संपन्न, प्रभावशाली और विख्यात थे। आवास स्थान, ओढने-बिछाने-बैठने के उपकरण, यान, वाहन आदि प्रचुर जीवनोपयोगी साज समान एवं सोना-चाँदी आदि विपुल धनसंपत्ति के स्वामी थे। व्यावसायिक दृष्टि से धन के विनियोग में कुशल थे। उनके यहाँ भोजन करने के पश्चात् भी खाने-पीने की सामग्री प्रचुर मात्रा में बचती थी, जिससे उनकी संपन्नता व्यक्त होती थी। उनके घरों में बहुत से दास-दासी, गाय, भैंस, बैल आदि थे। वे अत्यंत प्रभावशाली होने के कारण लोगों द्वारा अतिरस्करणीय थे। वे शूरवीर, योद्धा, पराक्रमी थे। उनके पास सेना, वाहन आदि की प्रचुरता थी। अनेक युद्धों में, जिनमें बराबरी के मुकाबले थे, अपना लक्ष्य पूरा किया सफलता प्राप्त की। उन आपात किरातों के देश में असमय में मेघों की गर्जना, बिजली का चमकना, अकाल में ही पेड़ों पर फूलों का आना, आकाश में वानव्यंतर आदि देवों का नर्तन-इस प्रकार वे सैकड़ों उत्पात एकाएक उत्पन्न हुए। उन आपात किरातों ने अपने देश में इन बहुत प्रकार के उत्पातों को देखा तो वे अन्यमनस्क एवं खिन्न हुए। वे एक दूसरे को संबोधित करते हुए कहने लगे - देवानुप्रियो! न जाने हमारे देश में कैसा उपद्रव होगा? ऐसा सोचकर वे उन्मनस्क, उदास और खिन्न हो गए। शोक सागर में निमग्न हो गए, हथेली मुँह रखे आर्तध्यान में ग्रस्त होते हुए, भूमि पर नजर गड़ाते हुए चिंतातुर हो उठे। ___ तब राजा भरत चक्ररत्न द्वारा निर्देशित किए गए रास्ते पर यावत् समुद्र की गर्जना की ज्यों सिंहनाद करता हुआ तमिस्रा गुहा के उत्तरी द्वार से इस प्रकार निकला जैसे चंद्रमा मेघों द्वारा बादलों की घटाओं से उत्पन्न अंधकार को चीरकर बाहर निकलता है। आपातकिरातों ने जब राजा भरत की सेना के अग्रभाग को आते हुए देखा तो वे अत्यंत क्रोध, रोष तथा कोप से तमतमाते हुए परस्पर कहने लगे - देवानुप्रियो! मौत को चाहने वाला, दुःखद अंत एवं अशुभ लक्षण वाला, हीन-अशुभ चतुर्दशी को जन्मा, लज्जा और शोभा रहित कौन पुरुष है, जो हमारे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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