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________________ तृतीय वक्षस्कार - तमिस्रागुहा : दक्षिणी कपाटोद्घाटन १५५ वहाँ आया। स्नान कर नित्यनैमित्तिक बलि-पूजा, प्रायश्चित्त आदि मांगलिक कृत्य संपादित किए। राजसभा आदि विशिष्ट स्थानों में पहनने योग्य, उत्तम मांगलिक वस्त्र धारण किए। संख्या में कम किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को विभूषित किया। धूप, पुष्प, सुगंधित वस्तुएँ हाथ में लेकर स्नानघर से प्रतिनिष्क्रांत हुआ। जिस ओर तमिस्रा गुफा के कपाट थे, उस ओर गया। ____ तब उस सुषेण सेनापति के बहुत से राज सम्मानित विशिष्टजन, ईश्वर-प्रभावशाली पुरुष, माडंबिक-जागीरदार यावत् सार्थवाह प्रभृति अनेकजन सेनापति के पीछे-पीछे चले। उनमें से कई अपने हाथों में कमल लिए हुए चले। उनमें बहुत सी कुबड़ी, चिलात-किरात देशोत्पन्न यावत् जो इंगित मात्र से चिंतित तथा अभिलषित भाव को समझने में निष्णात थीं प्रत्येक कार्य में कुशल थीं, विनयशील थीं, सेनापति के पीछे-पीछे चली यावत् कुछ अपने हाथों में कलश लिए थीं। सेनापति सुषेण सब प्रकार की समृद्धि द्युति यावत् वाद्य ध्वनि के साथ तमिस्रा गुहा के दक्षिणी द्वार के कपाटों के पास पहुँचा। दृष्टि पड़ते ही उनको प्रणाम किया। मोरपंखों से बनी प्रमार्जनिका ग्रहण की। दक्षिणी द्वार के कपाटों को उससे स्वच्छ किया। उन्हें पवित्र जल की धारा से प्रक्षालित किया। सरस गोशीर्ष चंदन के घोल से पांचों अंगुलियों सहित करतल के थापे लगाए। फिर श्रेष्ठ, उत्तम, सुगंधित फूलों की मालाओं से उनकी अर्चना की। फूलों को चढ़ाया यावत् वस्त्र समर्पित किए। ऐसा कर इन सबके ऊपर से नीचे तक बड़ी, गोलाकार मालाएं लटकाईं यावत् स्वच्छ, चिकने रजत निर्मित अक्षत चावलों से तमिस्रा गुफा के दाहिने द्वार के कपाटों के आगे स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् आठ-आठ मंगल प्रतीक आलेखित किए। केशों को पकड़ने की ज्यों कोमलता से अपने द्वारा गृहीत पंचरंगे फूल उसने अपनी हथेली से चढ़ाए। चन्द्रमा की कांति के समान द्युतिमय, वैडूर्य रत्न एवं वज्ररत्न विर्मित धूपदान के हत्थे को पकड़ा यावत् धूप खेया। धूप देकर बाएं घुटने को ऊँचा किया। हाथ जोड़कर यावत् सिर पर से अंजलिबद्ध हाथों को घुमाते हुए कपाटों को प्रणाम किया। ऐसा कर दण्ड रत्न को ग्रहण किया। वह दण्ड रत्न तिरछे, पाँच अवयव युक्त था। ठोस हीरों से निर्मित था। शत्रुसेना का विनाशक था। राजा की सैन्य छावनी में गड्ढों, कदराओ, सम-विषम स्थानों, पर्वतों के ढलानों को समतल करने वाला, शांतिप्रद और शुभकर तथा हृद्यकर- प्रिय लगने वाला था, राजा के मनोरथ को पूर्ण करने वाला था। दिव्य एवं अप्रतिहत-किसी भी प्रतिघात से अबाधित था। सेनापति सुषेण ने उस दण्ड रत्न को ग्रहण किया। वेग प्राप्त करने हेतु सात-आठ कदम पीछे हटा और तमिस्रागुफा के दाहिने द्वार के कपाटों पर तीन बार चोट की, जिसके परिणाम स्वरूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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