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________________ तृतीय वक्षस्कार - सेनापति द्वारा विशाल विजयाभियान १५१ णिवेइत्ता य अप्पिणित्ता य पाहुडाई सक्कारियसम्माणिए सहरिसे विसजिए सगं पडमंडवमइगए। तए णं सुसेणे सेणावई ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल पायच्छित्ते जिमियभुत्तुत्तरागए समाणे जाव सरसगोसीसचंद-णुक्खित्तगायसरीरे उप्पिं पासायवरगए फुटमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसइबद्धेहिं णाडएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवणच्चिजमाणे २ उवगिज्जमाणे २ उवलालि(लभि)जमाणे २ महया हयणट्टगीयवाइयतंतीतलताल-तुडिय-घणमुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं इढे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे विहरइ। शब्दार्थ - उत्तररित्तु - पारकर, अप्पडिहयसासणे - जिसकी आज्ञा कोई उल्लंघन न कर सके, संसियाओ - संस्थित, घेत्तूण - लेकर, पडमंडव - पटमंडप-कपड़ा, उक्खित्त - लेप किया। . भावार्थ - सिंधु महानदी को पार कर सेनापति सुषेण, जिसकी आज्ञा का प्रतिरोध करने में कोई भी समर्थ नहीं था, गाँव, आकर, नगर, पर्वत, खेट, कर्बट, मडंब, पट्टण आदि विजय करता हुआ, सिंघल देशीय, श्रेष्ठ मणियों एवं रत्नों के भण्डारों से समृद्ध यवन द्वीप-यूनान को, अरब देश तथा रोम देश के लोगों को, अलसंड देशवासियों को पिक्खुरों, कालमुखों, जोनकों - इन विभिन्न लोगों को तथा उत्तर वैताढ्य पर्वत की तलहटी में संस्थित अनेक म्लेच्छ जाति के जनों को; दक्षिण पश्चिम त्रैऋत्य कोण से लेकर सिंधु नदी तथा समुद्र के संगम तक के, सभी में श्रेष्ठ कच्छ देश को अधिकृत कर वह वापस मुड़ा। कच्छ देश के बहुत ही सुंदर भूमिभाग में रुंका। तब अनेक देशों, प्रदेशों, नगरों तथा पत्तनों के अधिपति, आकरपति-स्वर्ण, रजत आदि खानों के स्वामी, मंडलपति, पट्टणपति आदि ने सभी अंगों पर धारण करने योग्य आभरण, उपांगों पर धारण करने योग्य भूषण, रत्न, वस्त्र, अन्यान्य उत्तम, राजोचित वस्तुएँ, मस्तक पर अंजलि बाँधे सेनापति सुषेण को समर्पित की। वहाँ से वापस लौटते हुए उन्होंने पुनः हाथ जोड़कर मस्तक से लगाया और प्रणाम कर कहा - आप हमारे स्वामी हैं। हम देव की ज्यों आपकी शरण में हैं। आपके द्वारा अधिकृत देशों के निवासी हैं। सेनापति ने उनको यथायोग्य स्थानों एवं अधिकारों से सम्मानित कर विदा किया। वे अपने-अपने नगर, पट्टन आदि स्थानों में लौट आए। जिसकी आज्ञा सर्वमान्य थी, उस सेनापति ने सविनय गृहीत आभरण, भूषण, रत्नों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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