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जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
को लिए हुए सिंधु नामक महानदी को पार किया। वैसा कर राजा भरत के सम्मुख उपस्थित हुआ एवं विजयाभियान का सारा वर्णन राजा को बतलाया। ऐसा निवेदित कर सभी भेंट स्वरूप प्राप्त वस्तुएँ राजाओं को अर्पित की। राजा ने सेनापति को सत्कृत, सम्मानित कर सहर्ष विदा. किया। सेनापति तंबू में अपने ठहरने की जगह आया।
तत्पश्चात् सेनापति सुषेण नहाया, नित्यनैमित्तिक पूजा-बलिकर्म आदि मांगलिक कृत्य किए। भोजन के पश्चात् यावत् आर्द्र गोशीर्ष जातीय श्रेष्ठ चंदन का जल शरीर पर छिड़का फिर अपने प्रासाद की ऊपरी मंजिल में गया। वहाँ मृदंग बज रहे थे, सुंदर तरुणियाँ बत्तीस प्रकार के अभिनयों द्वारा नाटक प्रस्तुत कर रही थी। सेनापति की इच्छानुरूप नृत्य एवं गान द्वारा वे उसके मन को अनुरंजित कर रही थीं। नाटक में गाए जाते गीतों के अनुसार वीणा, तबले, ढोलक, त्रुटित, मृदंग आदि वाद्यों से बादलों जैसी गंभीर ध्वनि निकल रही थीं। ऐसे संगीत नृत्यमय वातावरण में वह इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध आदि पंचविध मनुष्य भव संबंधी कामभोगों का सेवन करता हुआ सुखपूर्वक रहने लगा। तमिसागुहा : दक्षिणी कपाटोद्घाटन :
(६६) - तए णं से भरहे राया अण्णया कयाई सुसेणं सेणावई सद्दावेइ २ ता एवं वयासी - गच्छ णं खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेहि २ ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहित्ति।
तए णं से सुसेणे सेणावई भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ट चित्तमाणदिए जाव करयलपरिग्गहियं० सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जाव पडिसुणेइ २ त्ता भरहस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव सए आवासे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ ता दब्भसंथारगं संथरइ जाव कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता प्रहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल-पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई
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