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तृतीय वक्षस्कार - चर्मरत्न द्वारा सिंधु महानदी पार
चर्मरत्न द्वारा सिंधु महानदी पार
(६७)
तणं से सुसेणे सेणावई हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं हयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे महयाभडचडगरपहगरवंदपरिक्खित्ते महया उक्किट्ठिसीहणायबोलकलकलसद्देणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणे सव्विड्डीए सव्वज्जुईए सव्वबलेणं जाव णिग्घोसणाइएणं. जेणेव सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छइ २ त्ता चम्मरयणं परामुसइ, तए णं तं सिरिवच्छसरिसरूवं मुत्ततारद्धचंदचित्तं अयलमकंपं अभेज्जकवयं जंतं सलिलासु सागरेसु य उत्तरणं दिव्वं चम्मरयणं सणसत्तरसाइं सव्वधण्णाई जत्थ रोहंति, एगदिवसेण वावियाई, वासं णाऊण चक्कवट्टिणा परामुट्ठे दिव्वे चम्मरयणे दुवालस जोयणाइं तिरियं पवित्थरइ तत्थ साहियाई, तए णं से दिव्वे चम्मरयणे सुसेणसेणावइणा परामुट्ठे समाणे खिप्पामेव णावाभूए जाए यावि होत्था, तए णं से सुसेणे सेणावई सखंधावारबलवाहणे णावाभूयं चम्मरयणं दुरूहइ २ त्ता सिंधूं महाणई विमलजलतुंगवीइं णावाभूएणं चम्मरयणेणं सबलवाहणे ससेणे समुत्तिणे ।
शब्दार्थ - परामुसह - स्पर्श किया, अभेज - अभेद्य, सलिलासु - नदियाँ, जंतं - यत्र, उत्तरणं - पार करने का, णाऊण - अधिक, पवित्थरह - विस्तृत, णावाभूयं - नौकाभूत । भावार्थ गजारूढ सेनापति सुषेण पर कोरंट पुष्पों की मालाओं का छत्र तना था । अश्व, गज, रथ और श्रेष्ठ पदातियों से युक्त चतुरंगिणी सेना से घिरा था। बड़े-बड़े योद्धाओं एवं परिजन समुदाय से समवेत था । उस द्वारा किए गए गंभीर, उत्तम, सिंहनाद की गरजती हुई ध्वनि से ऐसा लगता था मानों समुद्र गरज रहा हो । सर्वविध समृद्धि, द्युति, सैन्यशक्ति से यात् निर्घोषपूर्वक- युद्धोन्मादजनित कोलाहल के साथ जहाँ सिंधु महानदी थी वहाँ आया। वहाँ पहुँचकर उसने चर्मरत्न का स्पर्श किया। वह चर्मरत्न श्रीवत्स नामक स्वास्तिक विशेष के रूप युक्त था । उस पर मोतियों, तारिकाओं तथा अर्द्धचंद्र का चित्रांकन था । वह अचल एवं कंपन रहित था । वह अभेद्य कवच के सदृश था। नदियों तथा सागरों को लांघने का यंत्र रूप अनन्य साधन था ।
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