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तृतीय वक्षस्कार - वर्द्धकिरत्न का बहुमुखी वास्तु नैपुण्य
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रूप में सुनियोजित, युद्ध में बजाए जाने वाले विशेष वाद्य के समान उस रथ के चलने से आवाज उत्पन्न होती थी। उसके कूर्पर-पिञ्जनक संज्ञक अवयव उत्तम थे। वह सुंदर पहियों तथा उत्कृष्ट नेमिमंडल युक्त था। उसके जुए के दोनों किनारे बड़े ही सुंदर थे। उसके तुम्बे की ज्यों उठे हुए भाग वज्ररत्न निर्मित थे। वह उत्तम कोटि के स्वर्णाभूषणों से शोभित था। वह उत्तम शिल्पाचार्यों द्वारा निर्मित था। उसमें श्रेष्ठ घोड़े जुते थे। उत्तम सारथि द्वारा वह सुचालित था। वह उत्तम, श्रेष्ठ, महनीय पुरुष द्वारा आरोहरण योग्य, श्रेष्ठ रत्नों से परिमंडित, अपने में लगे छोटे-छोटे धुंघरुओं से शोभित, किसी के द्वारा भी सामना न किए जाने योग्य (अपराभवनीय) था। उसका रंग विद्युत, तपाए हुए स्वर्ण, कमल, जपापुष्प, प्रदीप्त अग्नि तथा तोते की चोंच, गुंजा की अर्द्धचोंच, बंधुजीवक के पुष्प, हिंगलु राशि, सिंदुर, उत्तम कुंकुम, कबूतर के पैर, कोकिला के नेत्र, ओष्ठ, अतिमनोज्ञ लाल अशोक, स्वर्ण, पलाश पुष्प, गज तालु, इन्द्रगोपबीरबहूटी (वर्षा में होने वाला लाल कीट)-इनके समान प्रभा युक्त था। उसकी कांति बिंबफल, शिलाप्रवाल-मूंगा तथा उगते हुए सूरज के सदृश थी। समस्त ऋतुओं में खिलने वाले फूलों की मालाओं से वह सज्जित था। उस पर ऊँची, श्वेत ध्वजा फहरा रही थी। उसकी गड़गड़ाहटविशाल बादल. की गर्जना के तुल्य अत्यंत गंभीर थी, जिससे शत्रु का हृदय दहल उठता था।, अपनी प्रभा, कांति एवं नाम से ही वह पृथ्वी की विजय का संसूचक था। लोकविश्रुत, यशस्वी राजा भरत पौषध का पारणा कर इस पर आरूढ़ हुआ।
वरदामतीवर ___राजा भरत के अश्वरथ पर आरूढ़ होने के बाद का वर्णन पूर्ववत् है। राजा भरत ने दक्षिण दिशा की ओर बढ़ते हुए, वरदाम तीर्थ की ओर जाने के लिए लवणसमुद्र में अवगाहन किया यावत् उत्तम रथ के पहिए भीग गए यावत् वरदाम तीर्थ के देवकुमार ने प्रीतिदान दिया। यहाँ इतना अंतर है - उसने चूड़ामणि-शिरोभूषण, वक्षःस्थल पर धारण करने योग्य गले का हार, करधनी (कमर के नीचे का आभूषण विशेष), कड़े, भुजबंद भेंट किए यावत् उसने कहा - मैं दक्षिण दिशावर्ती अंतवाल-विघ्न नाशक, सीमारक्षक सेवक हूँ यावत् इस विजय के उपलक्ष में राजाज्ञा अनुसार अष्टदिवसीय महोत्सव मनाया गया एवं राजा को इसकी संपन्नता की सूचना दी गई। ___ वरदाम तीर्थकुमार को विजित कर लेने के उपलक्ष में मनाए गए अष्टदिवसीय महोत्सव के पूर्ण होने के पश्चात् वह दिव्य चक्ररत्न आयुधशाला से निष्क्रांत हुआ, अंतरिक्ष में अवस्थित हो गया यावत् आकाश वाद्य ध्वनि से पूरित था। वह चक्ररत्न उत्तर-पश्चिम-वायव्य कोण में स्थित प्रभासतीर्थ की ओर चल पड़ा।
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