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________________ १४२ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र प्रभासतीर्थ विजय (६२) तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं जाव उत्तरपच्चत्थिमं दिसिं तहेव जाव पच्चत्थिमदिसाभिमुहे पभासतित्थेणं लवणसमुदं ओगाहेइ २ ता जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला जाव पीइदाणं से णवरं मालं मउडिं मुत्ताजालं हेमजालं कडगाणि य तुडियाणि य आभरणाणि य सरं च णामाहयंकं पभासतित्थोदगं च गिण्हइ २ त्ता जाव पच्चत्थिमेणं पभासतित्थमेराए अहण्णं देवाणुप्पियाणं विसयवासी जाव पच्चत्थिमिल्ले अंतवाले, सेसं तहेव जाव अट्ठाहिया णिव्वत्ता ॥४८-४६॥ भावार्थ - तत्पश्चात् राजा भरत उस दिव्य चक्र का अनुसरण, अनुगमन करता हुआ वायव्य कोण की ओर होता हुआ पूर्ववत् यावत् पश्चिम दिशाभिमुख होता हुआ, प्रभासतीर्थ की ओर अग्रसर होता हुआ, लवण समुद्र में प्रविष्ट हुआ यावत् उसके रथ के पहिए आर्द्र हो गए यावत् प्रभासतीर्थाधिपति देव ने उसे स्नेहोपहार भेंट किए। पूर्व वर्णन से यहाँ विशेषता यह है - उसने राजा भरत को रत्नमाला, मुकुट, मोतियों की राशि, स्वर्णराशि, कटक, त्रुटित, अन्य आभूषण, नामांकित बाण एवं प्रभासतीर्थ का जल उपहृत किया और कहा - मैं आप द्वारा जीते गए देश का वासी हूँ यावत् पश्चिम दिशावर्ती अंतपाल हूँ। शेष वर्णन पूर्व की तरह है। इस विजय के उपलक्ष में अष्टदिवसीय विशाल महोत्सव संपादित हुआ। सिंधुदेवी पर विजय (६३) तए णं से दिव्वे चक्करयणे पभासतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहियाए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता जाव पूरेते चेव अंबरतलं सिंधूए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरत्थिमं दिसिं सिंधुदेवीभवणाभिमुहे पयाए यावि होत्था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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