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तृतीय वक्षस्कार - वरदाम तीर्थ पर विजय
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रत्न-माणिक्यमय थे। उसकी नेमी जंबूनद संज्ञक पीत स्वर्णमय थी। उसका अंतवर्ती परिधि भाग अनेक मणियों से निर्मित था। वह चक्ररत्न मणियों एवं मुक्तासमूह से अलंकृत था। वह वाद्यों के घोष से निनादित था। उसमें छोटे-छोटे घुघुरू लगे थे। वह दिव्य प्रभाव युक्त, मध्याह्न के सूरज की तरह तेजयुक्त, गोलाकार, अनेक प्रकार की मणियों, घंटियों से परिवृत था। समस्त ऋतुओं में विकसित होने वाले सुरभिमय फूलों की मालाओं से समायुक्त था। एक हजार यक्षों
के नाद से गगन मण्डल को मानो भर रहा था, गुंजित कर रहा था। उसका नाम सुदर्शन था। । राजा भरत के उस प्रधान चक्ररत्न ने इस प्रकार आयुधशाला से निकलकर, दक्षिण-पश्चिम दिशा में-नैऋत्य कोण में स्थित वरदाम तीर्थ की ओर प्रयाण किया।
वरदाम तीर्थ पर विजय
वरका
(५६) तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं दाहिणपच्चत्थिमं दिसिं वरदामतित्थाभिमुहं पयायं चावि पासइ २ त्ता हट्ठतुट्ठ० कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हयगयरहपवर० चाउरंगिणीं सेण्णं सण्णाहेह आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह त्तिक? मजणघरं अणुपविसइ २ त्ता तेणेव कमेणं जाव धवलमहामेहणिग्गए जाव सेयवरचामराहिं उधुव्वमाणीहिं २ माझ्यवरफलयपवरपरिगरखेडयवरवम्मकवयमाढीसहस्सकलिए उक्कडवरमउडतिरीडपडागझयवेजयंतिचामरचलंतछत्तंधयारकलिए असिखेवणिखग्गचावणारायकणयकप्पणिसूललउडभिंडिमालधणुहतोणसरपहरणेहि य कालणीलरुहिरपीयसुक्किल्लअणेगचिंधसयसण्णिविढे अप्फोडियसीहणायछे लियहयहेसियहत्थिगुलुगुलाइय-अणेगरहसयसहस्स-घणघणेतणीहम्ममाणसद्दसहिएण जमगसमगभंभाहोरंभकिर्णितखरमुहिमुगुंदसंखियपरिलिवच्चगपरिवाइणिवंसवेणुविपंचिमहइकच्छभिरिगिसिगियकलतालकंसतालकरधाणुत्थिएण महया सहसण्णिणाएण सयलमवि जीवलोगं पूरयंते बलवाहणसमुदएणं एवं जक्खसहस्सपरिवुडे वेसमणे चेव धणवई अमरवइसण्णिभाए इड्डीए पहियकित्ती गामागरणगर
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