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________________ १३४ ___ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 40-00-00-00-00-0-0-08-28-10-10-26-24-06-04-14-10-100-100-10 +14-04-09-02-0-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-2 करूँ। ऐसा विचार कर मागधाधिपति देव ने हार, मुकुट, कुंडल, कंकण, भुजबंद, वस्त्र, आभूषण, नामांकित बाण तथा मागधतीर्थ का जल लिया। उन्हें लेकर वह उत्कृष्ट तीव्र, चपल, सिंह जैसी गति से, दिव्य देवगति से चलता-चलता राजा भरत के समीप आया। छोटे-छोटे घुघुरुओं से युक्त पाँच रंगों के उत्तम कपड़े धारण किए हुए, आकाश में स्थित होते हुए अपने दोनों हाथ जोड़े यावत् उनको मस्तक पर से घुमाते हुए राजा भरत को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया एवं कहा - आपने पूर्व दिशा में मागधतीर्थ पर्यन्त समस्त भरतक्षेत्र को भलीभांति विजित कर लिया है। मैं आप द्वारा विजित देश का वासी हूँ। आपका आदेशानुवर्ती सेवक हूँ, देवानुप्रिय! आपका पूर्व दिशा का अंतपाल-विघ्न निवारक हूँ। अतः आप मेरे द्वारा उपस्थापित यह प्रीतिदान-प्रसन्नता पूर्वक प्रस्तुत उपहार स्वीकार करें। यह कह कर उसने हार, मुकुट, कुंडल, बाजूबंद यावत् मागध तीर्थोदक उपहृत किया। ___ राजा भरत ने मागधतीर्थ कुमार द्वारा इस प्रकार प्रदत्त स्नेहोपहार अंगीकार किया। राजा भरत ने मागधतीर्थ कुमार को सत्कृत सम्मानित कर विदा किया। फिर राजा भरत ने अपना रथ वापस मोड़ कर मागधतीर्थ से होते हुए लवण समुद्र को पार किया एवं उसकी सेना की विजयोन्मुख छावनी जहाँ लगी थी, वहाँ आया। वहाँ स्थित बाह्य सभा भवन में पहुंचा। घोड़ों को रोककर रथ से नीचे उतरा, स्नानागार में प्रविष्ट हुआ यावत् उज्ज्वल, विशाल बादल को चीरकर निकलते चंद्रमा के समान सुंदर, सौम्य राजा स्नानगृह से बाहर निकला। वहाँ से भोजन मंडप में आया एवं सुखासन में स्थित हुआ, तेले की तपस्या का पारणा किया। पारणा कर भोजन मंडप से बाहर निकला और बाहरी उपस्थान शाला में पूर्वाभिमुख होकर बैठा। उसने अठारह श्रेणी-प्रश्रेणी के लोगों को आहूत किया और कहा - देवानुप्रियो! मागधतीर्थ कुमार देव को जीत लेने के उपलक्ष में आठ दिनों का विशाल महोत्सव आयोजित करो, इस बीच कोई भी क्रय-विक्रय संबंधी शुल्क यावत् अपराध के लिए भी अल्प दंडराशि न ली जाय ऐसी घोषणा करो। ऐसा कर मेरे आदेश की क्रियान्विति की सूचना दो। राजा द्वारा ऐसा आदेश दिए जाने पर उन्होंने तदनुरूप प्रसन्नता पूर्वक किया, करवाया यावत् राजा के पास आकर आज्ञानुरूप किए जाने की सूचना दी। ___ मागधतीर्थ देवकुमार के विजयोपलक्ष में आयोजित अष्टदिवसीय विशाल महोत्सव के परिपूर्ण हो जाने पर राजा भरत का दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से पुनः बाहर निकला। उस चक्र रत्न का अरकनिवेश स्थान-आरों का संयोजन स्थान हीरों से जड़ा था। उसके आरक लाल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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