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________________ तृतीय वक्षस्कार - भरत का मागध तीर्थ की दिशा में प्रस्थान १३३ की पूँछ के केशों के उस पर आधे चंद्र के आकार के बंध लगे थे। कृष्ण, हरित, पीत, रक्त एवं श्वेत नाड़ी तन्तुओं से उसकी प्रत्यंचा बंधी थी। वह शत्रु के जीवन का विनाश करने वाला था, उसकी प्रत्यंचा चपल थी। राजा ने धनुष ग्रहण कर उस पर बाण चढ़ाया। बाण की दोनों कोटियाँ वज्ररत्न से निर्मित थीं। उसका सिरा वज्र की भाँति अभेद्य था। उसका पुंख-पीछे का मुलायम हिस्सा स्वर्ण, मणि तथा रत्नों के समुचित रूप से बना हुआ था। उस पर अनेक मणियों तथा रत्नों द्वारा सुंदर रूप में राजा भरत का नाम अंकित था। राजा भरत ने धनुष पर बाण चढ़ाने के लिए अपने पैरों को विशेष स्थिति में जमा कर श्रेष्ठ बाण को कान तक खींचा और इस प्रकार के वचन बोला - ____गाथा - मेरे बाण के बहिर्भाग में तथा अन्तर्भाग में संप्रतिष्ठित नागकुमार, असुरकुमार, सुपर्णकुमार आदि देवों - मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप मेरे प्रणाम को सुनें और उसे स्वीकार करें॥ १,२।। यों कहकर राजा भरत ने बाण छोड़ा। गाथा - कमरबंद द्वारा अपने देह के मध्य भाग को बांधे हुए, हवा द्वारा उड़ाए जाते हुए कौशेय: नामक वस्त्र विशेष से सुशोभित राजा भरत अपने धनुष द्वारा इन्द्र की तरह शोभा पा रहा था। बिजली की ज्यों देदीप्यमान वह धनुष पंचमी के चाँद के समान राजा के विजयोद्धत हाथ में सुशोभित हो रहा था॥ ३,४॥ राजा भरत द्वारा छोड़े जाते ही वह बाण बारह योजन तक जाकर मागध तीर्थ के अधिष्ठायक देव के भवन में गिरा। मागध तीर्थ के अधिनायक देव ने जैसे ही बाण को अपने भवन में पड़ा हुआ देखा तो वह तत्काल क्रोध से आग-बबूला हो गया। रोषयुक्त, कोपाविष्ट होता हुआ, गुस्से में तमतमाते हुए उसके ललाट पर तीन रेखाएँ उभर आई उसकी भृकुटी तन गई। वह बोला- मृत्यु को चाहने वाले! अशुभ लक्षण वाले! हीन-असंपूर्ण चतुर्दशी को जन्मे! लज्जा एवं कांति रहित! वह कौनं अज्ञानी है, जिसने उत्तम देव प्रभाव से प्राप्त मेरी दिव्य ऋद्धि, द्युति पर प्रहार करते हुए मेरे भवन में बाण गिराया है। यों कह कर वह अपने सिंहासन से अभ्युत्थित हुआ तथा वहाँ आया जहाँ नामांकित बाण पड़ा था। उस पर अंकित नाम देखा, देखकर उसके मन में ऐसा भाव, मनोगत संकल्प उठा-जंबूद्वीप के अंतर्गत भरत क्षेत्र में भरत नामक चातुरंत चक्रवर्ती राजा प्रादुर्भूत हुआ है, अतः भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती मागधतीर्थ के अधिष्ठायक देवकुमारों के लिए यह समुचित एवं परंपरानुगत व्यवहार के अनुरूप है कि वे राजा को उपहार अर्पित करें। इसलिए मेरे लिए यह समुचित है कि मैं सजा के समक्ष जाऊँ और उपहार समर्पित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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