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जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
में वृषभ के तुल्य-स्वीकृत दायित्व भार का निर्वाहक, मरुद्राज वृषभकल्प - व्यंतर आदि देवों के मध्य वृषभकल्प-प्रमुख सौंधर्मेन्द्र के सदृश, राजोचित तेजस्वितामयी लक्ष्मी से अत्यंत ज्योतिर्मय, मंगलपाठकों या वंदिजनों द्वारा किए गए प्रशस्त संस्तवन से युक्त, देखते ही लोगों द्वारा उच्चारित जयनाद के शब्दों से सुशोभित, हाथी पर सवार, कोरंट पुष्पों के छत्र से युक्त डुलाए जाते चैवरों से सज्जित, जयघोष करते सहस्रों यक्षों से घिरे हुए यक्षाधिपति कुबेर के सदृश राजा भरत दिखलाई देता था। देवराज इन्द्र के सदृश वह समृद्धिशाली था। सर्वत्र उसकी कीर्ति विश्रुत थी। राजा भरत गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होता हुआ हजारों गाँव, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम तथा संबाध - इन विविध स्थानों से सुशोभित, प्रजाननयुक्त पृथ्वी को-शासकों को जीतता हुआ, उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को उपहार के रूप में स्वीकार करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुसरण करता हुआ, एक-एक योजन के अंतर पर अपना पड़ाव डालता हुआ, मागध तीर्थ पर पहुंचा। मागध तीर्थ से न अधिक दूर, नं अधिक समीप, बारह योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी, उत्तम नगर के सदृश अपनी विजय छावनी डाली। फिर राजा ने वर्धकीरत्न-चक्रवर्ती के चतुर्दश रत्नों-विशिष्टतम साधनों में से एक अतिश्रेष्ठ सूत्रधार या शिल्पकार को बुलाया। उसे आदेश दिया - देवानुप्रिय! शीघ्र ही मेरे आवास स्थान एवं पौषधशाला की संरचना करो। ऐसा होने पर मुझे पुनः सूचित करो। राजा द्वारा यों आदिष्ट किए जाने पर वह शिल्पकार हर्ष तथा परितोषयुक्त हुआ, मन के आनंदित होते हुए यावत् हाथ जोड़ कर बोला - स्वामी! जो आज्ञा - कहकर राजा का आदेश अंगीकार किया। उसने राजा के लिए शीघ्र ही आवास स्थान एवं पौषधशाला की रचना की। वैसा कर शीघ्र ही राजा को आज्ञानुरूप कार्य हो जाने की सूचना दी।
राजा भरत आभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे उतर कर जहाँ पौषधशाला थी, वहाँ आया। उसमें प्रविष्ट होकर उसका प्रमार्जन किया, डाभ का बिछौना लगाया तथा उस पर स्थित हुआ। उसने मागधतीर्थ कुमारदेव को उद्दिष्ट कर तीन दिनों के उपवास का तप अंगीकार किया। वैसा कर पौषधशाला में पौषध स्वीकार किया। ब्रह्मचर्य स्वीकार करते हुए स्वर्ण एवं रत्न निर्मित आभूषण उतारे तथा माला, वर्णक, विलेप आदि दूर किए। शस्त्र, मूसल, दंड, गदा आदि हथियार एक तरफ किए। यों सर्वथा एकाकी, तेले की तपस्या में निरत होता हुआ तत्पर रहा।
तेले की तपस्या के परिसंपन्न हो जाने पर राजा भरत पौषधशाला से बाहर आया। बाह्य सभा भवन में आकर अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार आदेश दिया -
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