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________________ तृतीय वक्षस्कार - भरत का मागध तीर्थ की दिशा में प्रस्थान १२७ **-02-04-04-08-10--10--08-2-9-18--19-08-28-04-28-08-2-8-02-10-00-00-00-00-100-10-48-49-9-10-02-28-02-12-12-16-- कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ ता एवं वयासी- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हयगयरहपवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेह चाउग्घंटं आसरहं पडिकप्पेहत्तिकटु मजणघरं अणुपविसइ २ त्ता समुत्त तहेव जाव धवलमहामेह णिग्गए जाव मजणघराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता हयगयरह-पवरवाहण जाव सेणाए पहियकित्ती जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूढे। शब्दार्थ - पडिकप्पेह - सुसज्जित करो, पहियकित्ती - प्रथित-कीर्ति-प्रसृत यशस्वी, वडइ - वर्धकी शिल्पकार, अबीए - अद्वितीय-अकेला। ___ भावार्थ - आठ दिनों का महोत्सव जब परिसंपन्न हो गया तब वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। आकाश में आधा स्थित हुआ। वह एक हजार यक्षों से घिरा था। दिव्य वाद्यध्वनि और गर्जन से आकाश परिव्याप्त था। विनीता राजधानी के बीच से होता हुआ निकला, गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होता हुआ, पूर्व दिशा में मागध तीर्थ की ओर प्रस्थान किया। राजा भरत ने उस चक्ररत्न को गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होते हुए पूर्व दिशा में मागध तीर्थ की ओर अग्रसर होते हुए देखा तो वह बहुत हर्ष एवं परितोषयुक्त हुआ यावत् उसने अपने कार्य व्यवस्थापकों को बुलाया और उनको आदेश दिया - देवानुप्रियो! आभिषेक्य - अभिषेक योग्य प्रधान हस्तिरत्न को शीघ्र सुसज्जित करो। अश्व, गज, रथ तथा उत्तम पदाति योद्धाओं से सज्जित चातुरंगिणी सेना को तैयार करो। मेरे आज्ञानुरूप कार्य संपादित कर वापस सूचित करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् वैसा कर अवगत कराया। . तदनंतर राजा भरत स्नानागार में प्रविष्ट हुआ। वह स्नानगृह मोतियों की लड़ों से युक्त गवाक्ष से सुशोभित था यावत् स्नान संपन्न कर धवल यावत् विशाल मेघ से निकलते चन्द्र की ज्यों बाहर निकला। स्नानागार से निकल कर अश्व, गज, रथ, अन्यान्य श्रेष्ठ वाहन एवं योद्धाओं के समूह से युक्त, सेना से सुशोभित राजा बाह्य सभा भवन में आया। वहाँ प्रधान हस्तिरत्न के पास पहुँचा तथा अंजनगिरि की चोटी के समान विशाल गजराज पर सवार हुआ। . भरतक्षेत्र के अधिनायक नरपति भरत का वक्षस्थल हारों से विभूषित तथा प्रीतिकर प्रतीत होता था। उसका मुख कुण्डलों से उद्योतित था। मुकुट से उसका मस्तक दीप्तिमान था। नृसिंहमनुष्यों में सिंह के तुल्य, नरपति-मनुष्यों का स्वामी, मनुष्यों का इन्द्र-परम ऐश्वर्यशाली, मनुष्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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