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________________ तृतीय वक्षस्कार - राजधानी की सुसज्जा १२३ शब्दार्थ - चंगेरी - डलिया, आदंस - आदर्श-दर्पण, सुपइट्ठग - सुप्रतिष्ठक-धूपदान, वायकरग - करवे, समुग्गय - समुद्गमक-पात्र, अब्भुकवेइ - प्रक्षालित, आलिहइ - आलेखन, काऊणं - कृत्य, पाडल - गुलाब, ओहिणिगरं - बड़ा ढेर, पग्गहेत्तु - प्रग्रहितुं-ग्रहण करने का, पयते - प्रयतते-प्रयास करता है, अणुद्ध - अनवरत, अमिलाय - अम्लान-ताजे। भावार्थ - राजा भरत के पीछे अनेक ऐश्वर्यशाली विशिष्ट पुरुष चल रहे थे। उन अनुगामी पुरुषों में से किन्हीं के हाथों में पद्म तथा किन्हीं के हाथों में उत्पल यावत् कईयों के हाथों में शतपत्र, सहस्रपत्र कमल थे। राजा भरत की बहुत सी दासियाँ भी पीछे-पीछे चल रही थीं - गाथा - झुकी हुई कमर वाली, उनमें से अनेक कुबड़ी, चिलात-किरात देशोत्पन्न, बौनी तथा अनेक बर्बर, बकुस, यूनान, पह्लव, इसित, थारुकिनिक, ह्रासक, लकुस, द्रविड़, सिंहल, अरब, पुलिंद, पक्कण, बहल, मुरुड, शबर तथा पारस देशोत्पन्न थीं॥ १,२॥ ____ उनमें से कई, अपने हाथों में चंदन चर्चित मंगल कलश, फूलों की छोटी डलिया, झारी, दर्पण, थाल, छोटी-छोटी थाली-तश्तरी, सुप्रतिष्ठक, करवे, रत्नमंजूषा, माला, वर्ण, गंध, चूर्ण, वस्त्र, अलंकार, मयूर की पांखों से निर्मित फूलों के गुलदस्तों से परिपूर्ण टोकरी यावत् मयूर पिच्छिका हाथ में लिए हुए थीं। कुछेक सिंहासन, छत्र, चँवर, तिलों से भरे हुए पात्र हाथ में लिए थीं। गाथा - इनके अतिरिक्त कतिपय दासियाँ तेल, कोष्ठ-सुगंधित द्रव्य, पत्ते, चोच-टपकाटपका कर निकाला हुआ सुगंधित द्रव्य विशेष, तगर, हरिताल, हिंगलु, मैनसिल-औषधि विशेष तथा सरसों से भरे हुए पात्र विशेष अपने हाथों में लिए हुए थीं॥१॥ ___ कतिपय दासियाँ ताड़पत्र के पंखे, कुछेक धूप के कुड़छे हाथ में लिए राजा के पीछे-पीछे चल रही थीं। इस प्रकार वह राजा भरत समस्त प्रकार की ऋद्धि, द्युति, शक्ति, समुदय, आदर, शोभा, वैभव, वस्त्र पुष्प, गंध, माला, अलंकार-उनकी शोभा से समायुक्त, कलात्मक रूप में एक साथ बजाए गए वाद्यों के साथ अत्यंत ऋद्धि यावत् शंख, प्रणव, पटह-ढोल, भेरी, झल्लरिझालर, खरमुखी (वीणा), मुर्ज-ढोलक, मृदंग, दुंदुभि-नगाड़े के महान् उद्घोष के साथ शस्त्रागार | में आया। वहाँ चक्ररत्न को देखते ही प्रणाम किया। चक्ररत्न के समीप आया। मयूर पिच्छिका द्वारा चक्ररत्न का प्रमार्जन किया। उसे पवित्र जल धारा से प्रक्षालित किया। सरस गोरोचन एवं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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