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जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
तीसे णं भंते! समाए सीहा वग्घा विगा दीविया अच्छा तरच्छा परस्सरा सरभसियालबिरालसुणगा कोलसुणगा ससगा चित्तगा चिल्ललगा ओसण्णं मंसाहारा मच्छाहारा खुद्दाहारा कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिंति कहिं उववजिहिति?
गोयमा! ओसण्णं णरगतिरिक्खजोणिएसुं उववजिहिंति।
ते णं भंते! ढंका कंका पीलगा मगुगा सिही ओसण्णं मंसाहारा जाव कहिं उच्छिहिंति कहिं उववजिहिंति?
गोयमा! ओसण्णं णरगतिरिक्ख-जोणिएसुं उववजिहिंति। .
शब्दार्थ - उत्तमकट्ठपत्ताए - उत्कर्ष की पराकाष्ठा, भंभाभूय - दुःख युक्त चीत्कार, लुक्खयाए - रूक्षता के कारण, अजवणिजोदगा - दूषित जल युक्त, विद्धसेहिंति - विध्वंस कर देंगे, भट्टि - भ्राष्ट्र-धूल रहित पठार, विरावेहिंति - तहस-नहस कर देंगे, समी करेहितिएक समान कर देंगे, इंगालभूया - अंगारभूता-अंगारों का समूह, केवल्लुय - कड़ाहा, सत्ताणंप्राणियों का, दुण्णिकम्मा - चलने-फिरने में कठिनता युक्त, कूड - कूट भ्रमोत्पादक, प्रहारुस्नायु, ददु - दाद, विकिटिभ - खाज, सिब्भ - सेहुआ-फोड़े, चिंत्तल - चित कबरे, कच्छू - पांव-विशेष प्रकार की खुजली, टोलगई - ऊँटों की जैसी गति, खलंत - डगमगाते हुए, पंसुर - धूल, विज्झडिय - चिपकी हुई, सण्ण - संज्ञा, रयणि - रजनी-एक हाथ, पणय - मोह, आउबहुले - सजातीय अप्काय के जीव, णिद्धाइत्ता - तेजी से दौड़कर, तरच्छ - बाघ जाति का हिंसक प्राणी, परस्सरा - गेंडा, सिही- मोर।
भावार्थ - हे आयुष्मन् श्रमण गौतम! पांचवें आरे के इक्कीस सहस्त्र वर्ष बीत जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम-दुःषमा नामक छठा आरा शुरू होगा। उसमें अनन्त वर्ण पर्याय, गंध पर्याय, रस पर्याय एवं स्पर्श पर्याय यावत् उत्तरोत्तर क्रमशः ह्रासोन्मुख होते जायेंगे।
हे भगवन्! जब वह आरक उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचेगा तो भरत क्षेत्र का आकार प्रकार कैसा होगा?
हे गौतम! उस समय लोग दुःखों से आर्त होंगे। उनमें हाहाकार मच जायेगा। गाय आदि पशु दुःख से चीत्कार कर उठेंगे। अथवा भंशा या भेरी के भीतर के शून्य या रिक्त भाग के समान वह समय विपुल जनक्षय के कारण जन रहित हो जायेगा। उस काल का ऐसा ही प्रभाव होगा।
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