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द्वितीय वक्षस्कार - परिनिर्वाण पर देवकृत महोत्सव
देवराज ईशानेन्द्र ने उत्तर दिग्वर्ती अंजनक पर्वत पर आठ दिवस पर्यन्त महोत्सव आयोजित किया। उसके लोकपालों ने चारों दधिमुख पर्वतों पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण महोत्सव मनाया। चमरेन्द्र ने दक्षिण दिग्वर्ती अंजनक पर्वत पर, उसके लोकपालों ने दधिमुख पर्वत पर तथा बली ने पश्चिम दिग्वर्ती अंजनक पर्वत पर तथा उसके लोकपालों ने दधिमुख पर्वत पर परिनिर्वाण महोत्सव आयोजित किया। इस प्रकार बहुत से भवनपति यावत् वाणव्यंतर देवों ने अष्टाह्निक महोत्सव मनाया। ऐसा कर अपने-अपने विमान, भवन, सुधर्मा सभाएं तथा अपने-अपने माणवक संज्ञक चैत्य स्तंभ जहाँ थे, वहाँ आए। वहाँ आकार जिनेश्वर देव की अस्थियों को हीरों से निर्मित गोलाकार डिबियाओं (भाजन विशेष) में रखा। नूतन मालाओं एवं सुरभिमय द्रव्यों से उनकी अर्चना की। अर्चना कर अपने प्रचुर भोगोपभोगमय जीवन में घुल-मिल गए।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भगवान् ऋषभदेव के परिनिर्वाण के बाद देवकृत महिमा महोत्सव का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत प्रकरण से उठी हुई शंकाओं का समाधान इस प्रकार है -
शंका - प्रस्तुत सूत्र में देवादि द्वारा तीर्थंकरों की दाढाएं जिन भक्ति से, जीताचार से और धर्म जान कर ग्रहण करने का उल्लेख आया है तो फिर अस्थिपूजा की तरह मूर्तिपूजा को आत्म कल्याणकारी मानने में क्या बाधा है? __समाधान - जो इन्द्रादि देव तीर्थंकर की दाढ़ा लेते हैं तथा वंदनादि करते हैं वे आत्मकल्याणार्थ नहीं, न उनके इस कृत्य को शास्त्रकार ने आत्म कल्याणकारी माना है। आगमकार ने तो इस सूत्र में देवताओं की भावना का निर्देश मात्र किया है, जैसे कि -
केइ जिणभत्तीए, केइ जीअमेयंति कट्ट केइ धम्मातिकट्ट गेण्हंति - इसमें स्पष्ट बताया गया है कि कितने ही देव जिनभक्ति से, कितने ही परम्परागत आचार से और कितने ही धर्म जान कर ग्रहण करते हैं। ___जब देवों के भी दाढा लेने मे भिन्न भिन्न विचार हैं तो उसमे एकान्त धर्म ही कैसे बतलाया जा सकता है ? वास्तव में दाढ़ा पूजा से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है, धर्म नायकतीर्थंकर देव की दाढ़ा होने मात्र से वे जड़ दाढ़ाएं पूजनीय वंदनीय नहीं हो सकती, इसलिए जिन देवों ने उन दाढ़ाओं को धर्म समझ कर ग्रहण किया हो या जो धर्म मानकर वन्दते पूजते हों, उनकी मान्यता ठीक नहीं पाई जाती। वास्तव में यह भी राग का ही अविवेक है। क्योंकि यदि हड्डियों के ग्रहण करने या वन्दने पूजने में आत्म-कल्याण रहा होता तो प्रभु के अनेकों गणधर, पूर्वधर, श्रुतधर, साधु साध्वियें और लाखों श्रावक-श्राविकायें भी प्रभु की अस्थियें लेकर
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