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द्वितीय वक्षस्कार - परिनिर्वाण पर देवकृत महोत्सव
शब्दार्थ - साहरइ - लाओ, चिइगाओ - चिता, रएंति-रचयंति - बनाते हैं, णियंसेइपहनाए (न्यस्त किए), विण? - विनष्ट, चिइगाए - चिता, झामेह - जलाओ, सकहं - दाढ़।
भावार्थ - तब देवराज, देवेन्द्र शक्र ने बहुत से भवनपति, वाणव्यंतर एवं ज्योतिष्क देवों से इस प्रकार कहा - देवानुप्रियो! शीघ्र ही नंदनवन से स्निग्ध, सरस, श्रेष्ठ, गोशीर्षचन्दन का काष्ठ लाओ। उस द्वारा तीन चिताएं बनाओ, जिनमें एक भगवान् तीर्थंकर के लिए हो। यह सुनकर वे भवनपति यावत् वैमानिक देव नंदनवन से सरस, श्रेष्ठ गोशीर्ष चंदन काष्ठ लाए। देवराज शक्र के आदेशानुसार एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, दूसरी गणधरों के लिए तथा तीसरी अवशिष्ट अनगारों के लिए यों तीन चिताएं बनाई।
तब देवराज शक्र ने आभियोगिक देवों को बुलाया और उनसे कहा - देवानुप्रियो! क्षीरोदक सागर से अविलंब क्षीरोदक लाओ। आभियोगिक देवों ने वैसा ही किया। ___इसके बाद देवराज शक्र ने भगवान् के शरीर को स्नान कराया। वैसा कर स्निग्ध, श्रेष्ठ गोशीर्ष चंदन से उनके शरीर पर लेप किया। हंस के समान श्वेत वस्त्र धारण कराए। सभी अलंकारों से विभूषित किया। - फिर उन भवनपति यावत् वैमानिक देवों ने गणधरों एवं अनगारों के शरीरों को भी क्षीरोदक - दुग्धवत् उज्ज्वल जल से नहलाया। तदनंतर सरस, उत्तम गोशीर्ष चंदन का उन पर लेप किया। लेप कर दो-दो दिव्य वस्त्र धारण करवाए तथा सभी अलंकारों से विभूषित किया। उसके बाद देवराज शक्रेन्द्र ने उन भवनपति यावत् वैमानिक देवों से कहा - देवानुप्रियो! वृक, वृषभ, अश्व यावत् वनलता के चित्रों में अंकित तीन शिविकाओं की विकुर्वणा करो, जिनमें से एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक अवशिष्ट अनगारों के लिए हो। इस पर उन भवनपति यावत् वैमानिक देवों के तीन शिविकाओं की रचना की जो क्रमशः उपर्युक्त तीनों के लिए थीं। .
तब उद्विग्न, खेदखिन्न, अश्रुपूर्ण नेत्रयुक्त देवराज, देवेन्द्र शक्र ने भगवान् तीर्थंकर के शरीर को जिन्होंने जन्म, वृद्धावस्था एवं मृत्यु को विनष्ट कर दिया, उनसे अतीत हो गए शिविका पर आरूढ़ किया एवं यथाक्रम चिता पर रखा। भवनपति. यावत् वैमानिक देवों ने जन्म, वृद्धावस्था एवं मृत्यु के पारगामी गणधरों तथा (अनगारों के शरीरों के शिविका पर आरूढ़ किया) एवं उन्हें चिताओं पर रखा।
तत्पश्चात् देवराज शक्रेन्द्र ने अग्निकुमारों को बुलाया, उनसे कहा - देवानुप्रियो! तीर्थंकर
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