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द्वितीय वक्षस्कार - परिनिर्वाण पर देवकृत महोत्सव
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देवेन्द्र देवराज शक्र ने जब ऐसा देखा तब उसने अवधिज्ञान का प्रयोग कर तीर्थंकर अरहंत ऋषभ को देखा। देखकर बोला - जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में कौशलिक भगवान् ऋषभ ने परिनिर्वाण प्राप्त किया है। पूर्वकाल में हुए, वर्तमान काल में विद्यमान तथा भविष्य में होने वाले देवराजों, देवेन्द्रों, शक्रों का यह पारंपरिक व्यवहार है कि वे तीर्थंकरों के परिनिर्वाण के उपलक्ष में महोत्सव आयोजित करें। अतः मैं भी तीर्थंकर भगवान् ऋषभ के परिनिर्वाण का महोत्सव समायोजित करने हेतु वहाँ पहुँचूँ। यों विचार कर देवेन्द्र ने भगवान् को उद्दिष्ट कर वहीं से वंदन, नमन किया। वह अपने चौरासी हजार सामानिक देवों तैतीस हजार त्रायस्त्रिंशक गुरु स्थानवर्ती देवों, चार लोकपालों यावत् चतुदिग्वर्ती चौरासी-चौरासी हजार आत्म रक्षक देवों तथा और भी अन्य बहुत से सौधर्म कल्पवासी देवों एवं देवियों से परिवृत उत्तम आकाश गति से यावत् तिर्यक् लोकवर्ती असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हुआ, अष्टापद पर्वत पर जहाँ भगवान् अरहंत ऋषभ का शरीर था, आया। उसने अन्यमनस्क, आनंद रहित, अश्रुपूर्ण नेत्रों के साथ भगवान् के शरीर की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की। वैसा कर न अधिक समीप तथा न अधिक दूर स्थित होते हुए, समीचीन स्थानावस्थित होते हुए यावत् पर्युपासना की।
(४२) तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया उत्तरड्डलोगाहिवई अट्ठावीसविमाणसयसहस्साहिवई सूलपाणी वसहवाहणे सुरिंदे अरयंबरवत्थधरे जाव विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ।
तए णं तस्स ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो आसणं चलइ, तए णं से ईसाणे जाव देवराया आसणं चलियं पासइ २त्ता ओहिं पउंजइ २ त्ता भगवं तित्थगरं
ओहिणा आभोएइ २ त्ता जहा सक्के णियगपरिवारेणं भाणेयव्वो जाव पज्जुवासइ एवं सव्वे देविंदा जाव अच्चुए णियगपरिवारेणं आणेयव्वा, एवं जाव भवणवासीणं वीस इंदा वाणमंतराणं सोलस जोइसियाणं दोण्णि णियगपरिवारा णेयव्वा।
शब्दार्थ - लोगाहिवई - लोकाधिपति, सूलपाणी - हाथ में शूल लिए हुए।
भावार्थ - उस काल, उस समय उत्तरार्द्ध लोक के स्वामी, अट्ठाईस लाख विमानों के अधिपति शूलपाणि, वृषभवाहन, आकाश जैसे निर्मल रंग के वस्त्र धारण करने वाले देवराज ईशानेन्द्र यावत् विपुल भोग भोगते विहरणशील थे।
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