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द्वितीय वक्षस्कार - केवल्य : संघ-स्थापना
८३ *--00-00-00-00---0-0-0-00-00-00-00-09--10-09-122-12-2-2-**----*-*-*-*-*-*-*-*-*-02-12-20-12-20-*किए गए ध्यान की समाप्ति तथा अपूर्व ध्यानारंभ की स्थिति में अर्थात् शुक्लध्यान के पृथक्त्ववितर्क सलिचार एवं एकत्व वितर्क अविचार - इन दो चरणों को स्वायत्त कर लेने तथा सूक्ष्म क्रियअप्रतिपाति एवं विच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति-इन दो चरणों की अप्रतिपन्नावस्था में अवस्थित रहते हुए, फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की एकादशी के पहले प्रहर के समय, निर्जल, त्रिदिवसीय तपस्या की स्थिति में, चन्द्र संयोग प्राप्त उत्तराषाढा नक्षत्र में, सर्वोत्तम तप, बल, वीर्य, आलय-दोष रहित स्थान में आवास, विहार, महाव्रतों से संबद्ध भावना, शांति, गुप्ति, मुक्ति, तुष्टि, आर्जव, मार्दव, लाघव के कारण सभी प्रकार से निर्भरता, सच्चारित्र में सार्वदिक संलग्नता के निर्वाण मार्गरूप उत्तम फल से आत्मा को भावित करते हुए उनके अनंत, अनुत्तर-सर्वोत्तम, व्याघात रहित, आवरण-शून्य, कृत्स्न-संपूर्ण, प्रतिपूर्ण, केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुए। वे जिन केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी पद को प्राप्त हुए। नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवलोक के पर्यायों के ज्ञाता हुए, आगति-नरक तथा देवगति से च्यवन कर मनुष्य या तिर्यंच गति में, आगमन गति-मनुष्य या तिर्यंच गति से मरकर देवगति या नरकगति में गमन, स्थिति कायस्थिति, भवस्थिति, उपपात, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आविष्कर्म-प्रकट कर्म, रह कर्म-गुप्त कर्म, उन-उन समयों में उत्पन्न मानसिक, वाचिक तथा कायिक योग आदि के जीवों तथा अजीवों के समस्त भावों के मोक्षमार्ग विषयक विशुद्ध भाव-यह मोक्ष मार्ग मेरे लिए तथा अन्य प्राणियों के लिए हितप्रद, सुखप्रद तथा निःश्रेयस्कर है, सब दुःखों से मुक्त कराने वाला तथा आध्यात्मिक परमानंदप्रद होगा, इन सबके ज्ञाता, द्रष्टा हो गए। _भगवान् ऋषभ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों को पांच महाव्रतों, उनकी भावनाओं एवं छह जीवनिकायों का उपदेश प्रदान करते हुए विचरण करते। पृथ्वीकाय आदि जीवनिकाय तथा भावनायुक्त पांच महाव्रतों का विस्तृत वर्णन अन्यत्र द्रष्टव्य है।
अर्हत् ऋषभ के चौरासी गण एवं चौरासी गणधर थे। उनके ऋषभसेन आदि चौरासी सहस्र उत्कृष्ट श्रमण संपदा थी। उनके ब्राह्मी, सुंदरी आदि तीन लाख आर्यिकाएँ-श्रमणियाँ-उत्कृष्ट श्रमणी. संपदा थी। उनके श्रेयांस आदि तीन लाख पांच हजार उत्कृष्ट श्रमणोपासक संपदा थी। उनके सुभद्रा आदि पांच लाख चौवन हजार उत्कृष्ट श्रमणोपासिका संपदा थी। जिन न होने पर भी जिन सदृश, सर्वाक्षर-संबोधवेत्ता, जिनवत् सत्य अर्थ निरूपक चार हजार सात सौ पचास चतुर्दश पूर्वधर-श्रुत केवली, नौ सहस्र अवधिज्ञानी, बीस सहस्र सर्वज्ञ, बीस हजार छह सौ वैक्रिय लब्धिधारी, बारह हजार छह सौ पचास विपुलमति मनः पर्यवज्ञानी, बारह हजार छह सौ
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