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जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र *-48-48-42-48-**-**-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-19-122--28-08-28-28-12-28-**-*-*-*-19-19-19-19-19-19 कमलपत्र की तरह लेप रहित, आकाश की तरह आलंबन रहित-आत्मावलंबित, वायु की तरह घर रहित, चंद्रमा की तरह देखने में सौम्यभावमय, सूर्य के समान तेजस्वी, पक्षी की तरह उन्मुक्तविहारी, सागर की तरह गांभीर्य युक्त, मंदर पर्वत की तरह अकंपित-स्थिर, धरती के समान सभी स्पर्श को सहने वाले, जीव (आत्मा) की तरह अप्रतिहत-अनवरूद्ध गति थे।
उन भगवान् ऋषभ के किसी भी प्रकार का प्रतिबंध-अवरोध नहीं था। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से प्रतिबंध चार प्रकार का आख्यात हुआ है। द्रव्य की अपेक्षा से प्रतिबंध का ऐसा रूप है, जैसे - ये मेरे माता-पिता, भ्राता-भगिनी यावत् अन्यान्य संबंधी, परिचित जन हैं। ये मेरे रजत, स्वर्ण यावत् उपकरण-अन्य सामान हैं। अथवा सचित्त-द्विपद प्राणी, अचित्तजड़ पदार्थ स्वर्ण, चाँदी आदि निर्जीव पदार्थ, मिश्र-सोने के आभूषणों से सज्जित द्विपद आदि . प्राणी, इस प्रकार इन पदार्थों में भगवान् का जरा भी प्रतिबंध, ममत्व, आसंग नहीं था। .
क्षेत्र की अपेक्षा से भगवान् ऋषभ अप्रतिबंध थे - गाँव, नगर, वन, क्षेत्र, खलिहान, घर, प्रांगण, इत्यादि में उनका जरा भी आसक्त भाव नहीं था।
काल की अपेक्षा से वे इस प्रकार अप्रतिबद्ध थे - स्तोक, लव, मुहूर्त, दिन-रात, पक्ष,. मास, ऋतु, अयन, संवत्सर या और भी दीर्घकाल विषयक आसक्त भाव नहीं था।
भाव की अपेक्षा से इस प्रकार प्रतिबंध रहित थे - क्रोध यावत् लोभ तथा हास्य से उनकी कोई संलग्नता नहीं थी। भगवान् ऋषभ वर्षावास-चातुर्मास्य के सिवाय हेमंत ऋतु के महीनों में तथा ग्रीष्म ऋतु के महीनों में किसी भी गाँव में एक रात, नगर में पाँच रात परिमित प्रवास करते हुए हास्य, शोक, रति, भय तथा परित्रास वर्जित, ममत्व रहित, अहंकार शून्य, लघुभूत-किसी प्रकार के आत्मपरिपंथी भाव से विमुक्त, अतएव हलके, निर्ग्रन्थ - बाहरी-भीतरी ग्रंथियों (कुटिलताओं) से विवर्जित, वसूले द्वारा शरीर की त्वचा को छीले जाने पर भी वैसा करने वाले के प्रति विद्वेष शून्य एवं किसी के द्वारा चंदन का लेप किए जाने पर भी उसके प्रति अनुराग वर्जित, पत्थर और सोने में एक जैसे भाव से युक्त, इस लोक और परलोक में अप्रतिबद्ध-ऐहिक और पारलौकिक - स्वर्गिक सुख की लिप्सा से रहित, जीवन और मृत्यु की आकांक्षा से रहित, संसार-सागर को पार करने हेतु सन्नद्ध, आत्मप्रदेशों के साथ संश्लिष्ट कर्मप्रदेशों को विच्छिन्न करने में अभ्युत्थित, तत्पर रहते हुए, विहरणशील थे। ___इस प्रकार विहार करते हुए एक सहस्र वर्ष बीत जाने पर भगवान् ऋषभ पुरिमताल नामक नगर के बाहर अवस्थित शकटमुख नामक उद्यान में एक वट वृक्ष के नीचे ध्यानांतरिका-शुरू
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