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________________ ७० अन्तकृतदशा सूत्र 本來本來本中中中中中中中中來來來來來來來來來來來來來來來來來來來杯特种邮來 उत्तर - निर्जल तेला कर के साधक ग्रामादि के बाहर, शरीर को कुछ झुका कर के, एक . पुद्गल पर दृष्टि जमा कर, अनिमेष दृष्टि से स्थिर शरीरी होकर, सभी इन्द्रियों का गोपन करता हुआ ध्यानस्थ रहता है। दैविक, मानवीय या पाशविक उपसर्गों को समभाव से सहता है। मलमूत्र की बाधा होने पर पूर्व प्रतिलेखित स्थान पर जा कर निवृत्त होकर पुनः कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित रहता है। यदि इस प्रतिमा का सम्यक् परिवहन नहीं किया जाय तो उन्माद, दीर्घकालिंक रोगातंक या जिनधर्म से च्युति हो सकती है। सम्यक् आराधना होने पर अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान या केवलज्ञान तीनों में से कोई न कोई अवश्य होता है। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कम से कम उनतीस वर्ष की उम्र, बीस वर्ष की दीक्षा तथा नववें पूर्व की तीसरी आचार-वस्तु का ज्ञान आवश्यक है, पर यहाँ अनुज्ञा प्रदान करने वाले स्वयं तीर्थंकर देव हैं, अतः श्रुत व्यवहार यहाँ निर्यामक नहीं है। प्रश्न - गजसुकुमालजी को बारहवीं भिक्षु प्रतिमाराधन की कैसी सूझी तथा इसकी परिचिति. एवं विधि कहाँ से जानी? ____ उत्तर - संभवतः धर्म-देशना में प्रतिमा वर्णन हुआ हो जिससे उनमें भी प्रतिमाराधन करने का उत्साह जगा हो। अनुज्ञा देने वालों ने विधि भी बताई ही होगी। . प्रश्न - पूर्वधर तो अनुप्रेक्षा में समय बिताते हैं, गजसुकुमालजी ने कायोत्सर्ग में क्या .. चिन्तन किया? उत्तर - यद्यपि वे आगमों के अभ्यासी नहीं थे, तथापि भगवान् की धर्मदेशना तो सुनी ही थी, उस सुने हुए एवं भिक्षु प्रतिमा की अनुज्ञा प्रदान करते समय भगवान् ने जो विधि फरमाई उसका चिन्तन करते रहे होंगे। तए णं से गयसुकुमाले अणगारे अरहया अरिट्ठणेमिणा अब्भणुण्णाए समाणे अरहं अरिट्ठणेमिं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता अरहओ अरिट्ठणेमिस्स अंतियाओ सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव महाकाले सुसाणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता थंडिलं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता उच्चारपासवणं भूमि पडिलेहेइ,पडिलेहित्ता ईसिंपन्भारगएणं कारणं जाव दो वि पाए साहटु एगराइयं महापडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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