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अन्तकृतदशा सूत्र ******************************************************************** समासासित्ता तओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जहा अभओ, णवरं हरिणेगमेसिस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हई जाव अंजलिं कट्ट एवं वयासी - इच्छामि णं देवाणुप्पिया! सहोयरं कणीयसं भाउयं विदिण्णं।
कठिन शब्दार्थ - वत्तिस्सामि - प्रयत्न करूंगा, सहोयरे - सहोदर, कणीयसे - कनिष्ठ (छोटा), भाउए - भाई, इट्ठाहिं - इष्ट, कंताहिं - कान्त, वग्गूहिं - वचनों से, समासासेड़ - धैर्य बंधाता है, पडिणिक्खमइ - निकलता है, पोसहसाला - पौषधशाला, जहा अभओ - अभयकुमार के समान, अट्ठमभत्तं - अष्टमभक्त (तेला), विदिण्णं - इच्छा है। ___भावार्थ - माता की बात सुनकर कृष्ण-वासुदेव ने कहा - "हे माता! अब तुम आर्तध्यान मत करो। मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा कि जिससे मेरे एक सहोदर छोटा भाई उत्पन्न हो।" ऐसा कह कर अभिलषित प्रिय और मधुर वचनों से माता को विश्वास और धैर्य बंधाया। इसके बाद वहाँ से निकल कर कृष्ण-वासुदेव पौषधशाला में आये और जिस प्रकार अभयकुमार ने अष्टम-भक्त स्वीकार कर के अपने मित्र-देव की आराधना की थी, उसी प्रकार कृष्ण वासुदेव भी अष्टमभक्त कर के हरिनैगमेषी देव की आराधना करने लगे। आराधना से आकृष्ट हरिनैगमेषी देव वहाँ उपस्थित हुआ और कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहने लगा -
“हे देवानुप्रिय! आपने मेरा स्मरण क्यों किया? मैं उपस्थित हूँ। कहिये आपका क्या मनोरथ है?" तब कृष्ण वासुदेव ने दोनों हाथ जोड़ कर उस देव से ऐसा कहा - "हे देवानुप्रिय! मेरे एक सहोदर लघुभ्राता का जन्म हो, यह मेरी इच्छा है।"
विवेचन - 'जहा अभओ' - जिस प्रकार अभयकुमार ने (जिसका वर्णन ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र प्रथम अध्ययन में उपलब्ध है) अपनी छोटी माता धारिणी के दोहद की पूर्ति के लिए अपने पूर्व भव के सौधर्म कल्पवासी देव को पौषध युक्त तेले के तप से स्मरण किया, उसी प्रकार श्रीकृष्ण ने पौषधशाला में जा कर विधि युक्त अष्टम तप द्वारा हरिनैगमेषी देव का ध्यान किया। तेले की पूर्ति पर उस देव का आसन चलायमान हुआ और अवधिज्ञान के उपयोग से उसने जाना कि श्रीकृष्ण मुझको याद कर रहे हैं तब वह देव उत्तर वैक्रिय करके श्रीकृष्ण के पास आया।
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