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__ वर्ग ३ अध्ययन ८ - श्रीकृष्ण का प्रयास ******************* **来 的 ***********************
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भावार्थ - वह इस प्रकार का चिन्तन कर ही रही थी कि कृष्ण-वासुदेव स्नानादि कर के तथा वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो कर, देवकी देवी के चरण-वंदन करने के लिए उपस्थित हुए। उन्होंने अपनी माता को उदास एवं चिन्तित देखा। उनके चरणों में नमस्कार कर वे इस प्रकार पूछने लगे - “हे माता! जब मैं पहले तुम्हारे चरण-वंदन करने के लिए आता था तब मुझे देख कर तुम्हारा हृदय आनन्दित हो जाता था, परन्तु आज तुम्हारा मुख उदास और चिन्तित दिखाई दे रहा है। हे माता! इसका क्या कारण है?"
विवेचन - पुण्यवान् जीवों को वैसे तो आर्तध्यान के प्रसंग कम ही आते हैं, कभी आ भी जाय तो वे लम्बे समय तक नहीं ठहरते, यह उपरोक्त प्रसंग से स्पष्ट होता है। कृष्ण महाराज अपनी माताजी की कितनी भक्ति करते थे, यह भी एक अनुकरणीय आदर्श है।
तए णं सा देवई देवी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु अहं पुत्ता! सरिसए जाव समाणे सत्त पुत्ते पयाया। णो चेव णं मए एगस्स वि बालत्तणे अणुभूए। तुम पि य णं पुत्ता! छण्हं छण्हं मासाणं ममं अंतियं पायवंदए हव्वमागच्छसि, तं धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव झियामि। ___भावार्थ - तब देवकी देवी ने कहा - 'हे पुत्र! मैंने आकृति वय और कान्ति में एक समान नलकूबर के सदृश सुन्दर सात पुत्रों को जन्म दिया, परन्तु मैंने एक की भी बाल-क्रीड़ा के आनंद का अनुभव नहीं किया। हे पुत्र! तुम भी मेरे पास चरण-वंदन करने के लिए छह-छह मास में आते हो। इसलिए मैं अनुभव करती हूँ कि वे माताएं धन्य हैं, पुण्यशालिनी हैं, उन्होंने पुण्याचरण किया है, जो अपनी संतान की बाल-क्रीड़ा के आनंद का अनुभव करती हैं। मैं अधन्य हूँ, अकृतपुण्य हूँ। इसी बात को सोचती हुई मैं उदासीन हो कर आर्तध्यान कर रही हूँ।'
श्रीकृष्ण का प्रयास -
(२७) । तए णं कण्हे वासुदेवे देवई देविं एवं वयासी-मा णं तुन्भे अम्मो! ओहय जाव झियायह। अहण्णं तहा वत्तिस्सामि जहा णं ममं सहोयरे कणीयसे भाउए भविस्सइ त्ति कटु, देवई देविं ताहिं इट्टाहिं कंताहिं जाव वगूहि समासासेइ,
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