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__ अन्तकृतदशा सूत्र 来来来来来来********************本本來來來來來來來來來來來來*************
विवेचन - मोहकर्म की विचित्र दशा जीव को समाधि एवं शान्ति के नजदीक ही नहीं आने देती। पानी के नीचे आग लगी रहे तो वह ठण्डा एवं स्थिर कैसे रहेगा? देवकी रानी ने जो आर्तध्यान किया वह मोहजनित एवं अप्रशस्त है। आगमकारों ने यथास्थिति चित्रण किया है। 'परायी थाली में घी ज्यादा दिखाई देता है। इस लोकोक्ति के अनुसार देवकी को बच्चों के लालन-पालन नहीं कर पाने का खेद हैं, पर क्या बच्चों का लालन-पालन करने वाली माताएं अपने को सुखी मानती है? नहीं, बच्चों का सकारण-अकारण रोना-रूठना माताओं को तंग कर देता है। बच्चों के मल-मूत्र माताओं को साफ करने पड़ते हैं, तरह-तरह की छोटी-मोटी बीमारियाँ बच्चों को लगी रहती है, बालक रोता है, पर कहाँ क्या दर्द है - यह कह नहीं पाता। ऐसी स्थिति में पुत्रवती माताओं के ये उद्गार होते हैं -
__ "तं धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव जीवियफले जाओ णं वंझाओ अवियाउरीओ जाणुकोप्पर मायाओ सुरभिगन्ध-गन्धियाओ विउलाइं माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुञ्जमाणीओ विहरंति, अहं णं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा। णों संचाएमि रहकूडेणं सद्धिं विउलाइं जाव विहरत्तए।" - अर्थ - वे स्त्रियाँ धन्य हैं, पुण्यवान हैं, उन्हीं का नर-जीवन सफल हैं जो वंध्या हैं, प्रसव करने के स्वभाव से रहित हैं, सर्दी की मौसम में घुटने एवं कोहनी ही उनके स्तनों का स्पर्श करते हैं, पुत्र नहीं। अतः ऐसी जानु कूपर की माताएं ही धन्य हैं जो वस्त्रों-गहनों एवं सुगंधित द्रव्यों का प्रयोग करती हुई मानवीय काम-भोगों का स्वतंत्र सुख भोगती हैं। सोमा ब्राह्मणी कहती है कि मैं अधन्या अपुण्या हूँ जो राष्ट्रकूट-पति के साथ भोग नहीं भोग पाती हूँ। अस्तु, सुख न तो वंध्यापने में है, न सन्तानवती होने में। सुख का स्थान तो संयम ही है। माता-पुत्र का वार्तालाप .
(२६) इमं च णं से कण्हे-वासुदेवे बहाए जाव विभूसिए देवईए देवीए पायवंदए हव्वमागच्छइ। तए णं से कण्हे वासुदेवे देवई देविं पासइ, पासित्ता देवईए देवीए पायग्गहणं करेइ करित्ता देवइं देवि एवं वयासी - 'अण्णया णं अम्मो! तुब्भे ममं पासित्ता हट्ठ जाव भवह, किण्णं अम्मो! अज तुब्भे ओहय जाव झियायह?'
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