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________________ १६८ . . अन्तकृतदशा सूत्र ********** *************************************************** जं चेव जाणामि तं चेव ण जाणामि, जं चेव ण जाणामि तं चेव जाणामि। तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए जाव पव्वइत्तए। कठिन शब्दार्थ - जाएणं - जात - जन्मा हुआ है, अवस्सं - अवश्य, मरियव्वं - मरेगा, काहे - कब, कहिं - कहां, कहं - कैसे, केन्चिरेण - कितने समय में, कम्माययणेहिंकर्मों के आयतन से, णेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवेसु - नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव में, उववजंति - उत्पन्न होते हैं, सएहिं - अपने। भावार्थ - माता-पिता के उपरोक्त वचन सुन कर अतिमुक्तक कुमार बोले - 'हे मातापिता ! मैं यह जानता हूँ कि जिसने जन्म लिया है, वह अवश्य मरेगा, किन्तु यह नहीं जानता कि वह किस काल में, किस स्थान पर, किस प्रकार और कितने समय के बाद मरेगा? इसी प्रकार हे माता-पिता! मैं यह नहीं जानता कि किन कर्मों से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-योनि में उत्पन्न होते हैं, परन्तु यह अवश्य जानता हूँ कि जीव अपने ही कर्मों से उत्पन्न होते हैं। हे माता-पिता! मैंने इसीलिए कहा कि जिसे मैं नहीं जानता, उसे जानता हूँ और जिसे जानता हूँ, उसे नहीं जानता। इसलिए हे माता-पिता! आपकी आज्ञा होने पर मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से दीक्षा लेना चाहता हूँ।' विवेचन - जब माता पिता ने कहा कि - तुम्हारी गूढार्थ वाली रहस्यमयी बात हमारे कुछ समझ नहीं आयी है। तब अतिमुक्तक कुमार ने माता-पिता से कहा - 'हे माता-पिता! मैं जानता हूं कि जो जन्मा है वह कर्मों के वश होकर अवश्य मरेगा, यह तो जानने की बात हुई किंतु मैं यह नहीं जानता हूं कि प्रभात, संध्या आदि किस वेला में कब, गांव में, शहर में, जंगल में किस स्थान पर, बैठे-बैठे, सोते-सोते, चलते हुए, शस्त्र प्रयोग से, विष प्रयोग से यों ही किस निमित्त से कितने वर्ष बाद या महीने बाद या दिनों के बाद मृत्यु का वरण करेगा, यह मैं नहीं जानता हूं। - हे माता-पिता! मैं नहीं जानता हूं कि किन कर्मों के करने से, आत्मा में उन कर्मों के आयतन से, स्थान पा लेने से जीव नरक में, तिर्यंच में, मनुष्य में, देव में जाते हैं क्योंकि मुझे. सभी गतियों में जाने के सभी हेतु कारणों का पूरा ज्ञान नहीं है परन्तु हे जननी-जनक! भगवान् की धर्मदेशना ने मुझे यह बताया ही है जिसके फलस्वरूप मैं जानता हूं कि जीव जैसे भले बुरे कर्म करता है, अपने किए हुए उन कर्मों के अनुसार ही नरक में जाता है या तिथंच में जाता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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