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________________ वर्ग ६ अध्ययन १५ - अतिमुक्तक की दीक्षा और सिद्धिगमन १६६ ***********kekekchikek************************************************ या मनुष्य शरीर धारण करता है या देवगति में उत्पन्न होता है। व्यक्ति का आचरण ही अपने भव, भावी का निर्णायक है क्योंकि कोई भी ईश्वर या अन्य कोई शक्ति उसे स्वर्ग या नरक में नहीं भेजती है। संख्यात, असंख्यात, अनंत भवों का भाता व्यक्ति स्वयं ही जुटाता है। इस प्रकार मैं नहीं जानता हूं, जीव कहां, किस कर्म के कारण जाता है पर मैं जानता हूं कि स्वकृत कर्मानुसार ही जीव अगलें भव का आयुष्यं बांध कर वहां जाता है।' इस प्रकार समाधान कर कहा - 'हे पूज्य माता-पिता! मैं तत्त्व ज्ञान से बिल्कुल कोरा (अनभिज्ञ) नहीं हूं आप मुझे दीक्षित होने की आज्ञा देवें ताकि मैं दीक्षा ग्रहण कर सकू, आपकी आज्ञा नहीं होने पर प्रभुजी मुझे दीक्षित नहीं करेंगे, अतः आप मुझे आज्ञा दीजिए।' अतिमुक्तक की दीक्षा और सिद्धिगमन . . (८१) - तए णं तं अइमुत्तं कुमारं अम्मापियरो जाहे णो संचाएंति बहूहिं आघवणाहिं जाव तं इच्छामो ते जाया! एगदिवसमवि रायसिरिं पासेत्तए। तए णं से अइमुत्ते कुमारे अम्मापिउवयणमणुवत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ। अभिसेओ जहा महाबलस्स णिक्खमणं जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ। बहूई वासाई सामण्णपरियाओ, गुणरयणं जाव विपुले सिद्धे। ॥पण्णरसमं अज्झयणं समत्तं॥ . कठिन शब्दार्थ - णो संचाएंति - समर्थ नहीं होते हैं, बहूहिं आघवणाहिं - बहुत से युक्ति-प्रयुक्तियों से, रायसिरिं - राज्यश्री को, अम्मापिउवयणमणुवत्तमाणे - माता-पिता के वचन का अनुवर्तन करते हुए, तुसिणीए - मौन। . भावार्थ - माता-पिता अतिमुक्तक कुमार को अनेक प्रकार की युक्ति-प्रयुक्तियों से भी संयम लेने के दृढभाव से नहीं हटा सके, तब उन्होंने इस प्रकार कहा - 'हे पुत्र! हम एक दिन के लिए भी तुम्हारी राज्यश्री देखना चाहते हैं।' यह सुन कर अतिमुक्तक कुमार मौन रहे, तब माता-पिता ने उनका राज्याभिषेक - महाबल के समान - किया यावत् अतिमुक्तक कुमार ने भगवान् के पास दीक्षा अंगीकार की। फिर सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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