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चउहुसमं अज्झयणं - चौदहवां अध्ययन मेघ गाथापति
एवं मे विगाहावई रायगिहे णयरे, बहूहिं वासाइं परियाओ । विपुले सिद्धे । भावार्थ - इसी प्रकार मेघ गाथापति का वर्णन है। ये राजगृह नगर के थे। दीक्षा ले कर बहुत वर्षों तक संयम का पालन किया और विपुलगिरि पर सिद्ध हुए ।
विवेचन - शंका - अनेक मुनि शत्रुञ्जय, विपुलगिरि, गिरनार, अष्टापद आदि पर्वतों से मुक्त हुए हैं। फिर उन स्थानों को पवित्र तीर्थस्थान मानने में क्या बाधा है?
समाधान इस छट्ठे वर्ग के चौथे से चौदहवें तक के ग्यारह अध्ययनों के चरित्र नायक विपुल पर्वत पर सिद्ध हुए, यह तो प्राकृत पाठ से स्पष्ट ही है। इस पर भी यदि किसी स्थान विशेष की महत्ता वहाँ से मुक्त होने वाले महापुरुषों की अपेक्षा से हो तब तो पूरा का पूरा 'समय क्षेत्र' पवित्र तीर्थस्थान है, क्योंकि यहाँ का कोई स्थान ऐसा नहीं है जहाँ से कोई मुक्त न हुए हो ।
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समाधान
शंका- फिर शत्रुञ्जय विपुलगिरि आदि पर्वतों पर जाने की क्या आवश्यकता थी? संथारा करने वाले निर्जन शांत स्थानों की गवेषणा करते हैं । तीर्थंकर देवों के सान्निध्य में नर- अमर की विपुल आगति रहा करती है। कोलाहल पूर्ण स्थान की अपेक्षा पर्वत पर आत्मशांति के निमित्त विशेष रहते हैं । जीवन-संध्या में सारे जीवन की प्रतिलेखना एवं आराधना आवश्यक होती है। बस यही कारण है कि वन-पर्वत आदि सुविधाजनक स्थान देख लिए जाते थे । साध्वियाँ तो अपने उपाश्रयों से ही काल-धर्म प्राप्त करती है। यदि स्थान का एकांत महत्त्व व आग्रह होता तो तत्संबंधी विधि-विधान होता पर आगमों में ऐसा कुछ भी 'संकेत तक नहीं हैं। विशेष बहुश्रुत फरमावें, वही प्रमाण है।
॥ छठे वर्ग का चौदहवाँ अध्ययन समाप्त।
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