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________________ १०८ Jain Education International अन्तकृतदशा सूत्र ************************************************************jsjsjsjsj के के समान, हिययाणंदजणिया - हृदय को आनंद देने वाली, उंबरपुप्फंविव- उदुम्बर ( गूलर ) के समान, दुल्लहा - दुर्लभ, सवणयाए सुनने के लिए, किमंग पुण पासणयाए पुष्प देखने की तो बात ही क्या, सिस्सिणीभिक्खं - शिष्यणी भिक्षा के रूप में, दलयामि देता हूं, पडिच्छंतु - स्वीकार करें, अहासुहं- जैसा सुख हो । भावार्थ - कृष्ण - वासुदेव, पद्मावती देवी को आगे कर के भगवान् अरिष्टनेमि के समीप आये और तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिण कर के वन्दन - नमस्कार किया और इस प्रकार बोले 'हे भगवन्! यह पद्मावती देवी मेरी पटरानी है । यह मेरे लिए इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मनाम ( मन के अनुकूल कार्य करने वाली) है, अभिराम ( सुन्दर ) है । हे भगवन्! यह मेरे जीवन में श्वासोच्छ्वास के समान प्रिय है और मेरे हृदय को आनन्दित करने वाली है। इस प्रकार का स्त्री-रत्न उदुम्बर ( गूलर) के फूल के समान सुनने के लिए भी दुर्लभ है, तब देखने की तो बात ही क्या है? हे भगवन्! ऐसी पद्मावती देवी को मैं आपको शिष्या रूप भिक्षां देता हूँ। आप कृपा कर इस शिष्या रूप भिक्षा को स्वीकार करें।' कृष्ण वासुदेव की प्रार्थना सुन कर भगवान् ने कहा 'हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार सुख हो, वैसा करो।' - - - - **** je sjaj j For Personal & Private Use Only विवेचन - दशवैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन में मुनि तीसरे महाव्रत में प्रतिज्ञा करता है कि मैं सचित्त या अचित्त बिना दिए नहीं लूंगा । सचित्त शिष्य शिष्याएं ग्रहण की जाती है पर बिना आज्ञा के नहीं। क्योंकि अर्हन्तों और मुनियों के महाव्रत तो सरीखे ही होते हैं। तए णं सा पउमावई देवी उत्तरपुरत्थिमं दिसिभागं अवक्कम, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करित्ता जेणेव अरहा अरिट्ठणेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिट्ठणेमिं वंदइ णमंस, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - आलित्ते णं भंते! जाव धम्ममाइक्खियं । कठिन शब्दार्थ - उत्तरपुरत्थिमं दिसिभागं - उत्तरपूर्व दिशा भाग ईशान कोण में, अवक्कमित्ता जाकर, सयमेव - स्वयमेव, पंचमुट्ठियं पंचमौष्टिक, लोयं जल रहा है, धम्ममाइक्खियं धर्म की शिक्षा प्रदान कीजिये । लोच, आलित्ते भावार्थ इसके बाद पद्मावती देवी ने ईशान कोण में जा कर अपने हाथों से अपने शरीर पर के सभी आभूषण उतार दिये और अपने केशों का स्वयमेव पंचमुष्टिक लुंचन कर के ******** - - - - - www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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