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जेण ममं सहोयरे कणीयसे भायरे गयसुकुमाले अणगारे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए” त्ति कट्टु सोमिलं माहणं पाणेहिं कड्ढावेड़, कड्ढावित्ता तं भूमिं पाणिएणं अब्भोक्खावेइ, अब्भोक्खावित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागए संयं हिं अणुवि ।
कठिन शब्दार्थ- पाणेहिं चाण्डालों द्वारा, कड्डावेइ - घसीटवाया, पाणिएणं पानी से, अब्भोक्खावेइ - धुलवाया।
भावार्थ जब कृष्ण - वासुदेव ने सोमिल ब्राह्मण को मृत्यु प्राप्त होते देखा, तब वे इस प्रकार बोले - 'हे देवानुप्रियो ! यह वही अप्रार्थितप्रार्थक (जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाला) निर्लज्ज सोमिल ब्राह्मण है, जिसने मेरे सहोदर लघुभ्राता गजसुकुमाल अनगार को अकाल में ही काल का ग्रास बना डाला ।' ऐसा कह कर उस मृत सोमिल के पैरों को रस्सी से बंधवा कर तथा चाण्डालों द्वारा घसीटवा कर नगर के बाहर फिकवा दिया और उस शव द्वारा स्पर्शित भूमि को पानी डलवा कर धुलवाया। फिर वहाँ से चल कर कृष्ण वासुदेव अपने भवन में पहुँचे ।
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विवेचन - विवेक ज्योति लुप्त होने पर अपराधों का बीज वपन होता है । सोमिल को यदि अंगारे डालने से पूर्व भय एवं उद्वेग हो जाता तथा तीर्थंकरों की सर्वज्ञता ध्यान में आ जाती, तो कितना अच्छा रहता ? दिशा-प्रतिलेखन करते समय उसे प्रभु के अनंत चक्षुओं का ध्यान नहीं आया। तेजपुंज कृष्ण के कोप का ध्यान नहीं आया। क्या इस प्रसंग से बहुत सिखे जाने की गुंजाईश नहीं है ?
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अन्तकृतदशा सूत्र
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भगवान् तो अनंत क्षमा के पुंज थे, पर कृष्ण महाराज शासक थे । 'भविष्य में यदि कोई संत सती की कदर्थना करेगा तो उसको कठोरतम दण्ड मिलेगा।' इस बात की शिक्षा देने के लिए तथा अपनी कोप शान्ति के लिए सोमिल के शव की दुर्गति करवाई | जिन - शासन एवं TM जन- शासन के सिद्धांतों का अंतर समझने के लिए, केवली और छद्मस्थ की भेद-रेखा का अध्ययन करने के लिए, क्षमा एवं क्रोध, प्रतिशोध एवं आत्मशान्ति के परस्पर विरोधी पहलुओं पर विचारणा के लिए प्रकृत अध्ययन अत्यन्त सहायक है। आक्रोश, कुण्ठा, तनाव, बदमिजाजी आदि मानसिक रोगों का परिहार आत्मिक शान्ति एवं समाधि का उत्तरोत्तर विकास कर के यहाँ
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