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अन्तकृतदशा सूत्र ******************************************************************** के दीक्षा ले लेने मात्र से सोमा कुँवारी रह जाती? यादव वंश में अनेक बल-रूप संपन्न राजकुमार थे। फिर कुँवारी के तो 'सौ घर और सौ वर' की लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है। अनीकसेनादि ने बत्तीसबत्तीस पत्नियों को छोड़ कर दीक्षा ली थी, गौतमकुमार आदि ने आठ-आठ रानियाँ छोड़ी थी। उनके श्वसुर तो नाराज नहीं हुए थे जब कि वे परिणिता पत्नियाँ थीं। इत्यादि ऊहापोह करने पर ध्यान में आयेगा कि सोमिल का यह चिन्तन असामयिक एवं अव्यावहारिक था।
कुछ भी हो, ग्रंथकारों का कहना है कि निनाणु लाख भवों के पूर्व गजसुकुमाल के जीव ने सोत के लड़के सोमिल के जीव को ईर्ष्यावश गर्म-गर्म उड़द के आटे की मोटी रोटी सिर पर बांध कर मार दिया था, उस वैर का बदला सोमिल ने इस भव में लिया। ...
बदला लेना या नहीं लेना - यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। यदि इस बीच सोमिल की मुक्ति हो गई होती अथवा वह मानवेत्तर गति में होता अथवा मनुष्य होकर भी द्वारिका में नहीं होता तो वह बदला लेने कहां से आता? महत्त्वपूर्ण है बदला चुकाना। उदय होने पर कर्म फल देते हैं। गजसुकुमालजी की भांति क्षमा-तितिक्षा पूर्वक समभाव से विपाक वेदन कर लिया जाय तो नए कर्मों की श्रृंखला नहीं बनती।
सोमिल ने उनके सिर पर अंगारे डाले थे तब भी उन्होंने उस पर मन से भी द्वेष नहीं किया। आत्मज्ञानी साधक जानता है कि कोई किसी को सुखी या दुःखी बनाने का निमित्त मात्र होता है, वास्तव में उपादान तो अपनी आत्मा ही है। . .
शंका - गीली मिट्टी की पाल बांधने की क्या आवश्यकता थी?
समाधान - महापुरुषों का मस्तक गोल एवं ऊँचा होता है। उस पर मुण्डन हुआ था, अतः बाल भी नहीं थे। ऐसी अवस्था में बिना पाल बांधे वे अंगारे सिर पर टिक नहीं सकते थे।
शंका - गजसुकुमालजी को यह वेदना कितने समय तक रही?
समाधान - अंगारे डालने के बाद देह दग्ध होने लग गया था। प्रहर भर के भीतर भीतर ही मुक्ति हो जाने की संभावना है। खैर के अंगारे काफी समय तक जलते हैं तथा ताप भी विशेष देते हैं।
नरक में यहाँ से अनंतगुणी उष्णता है, अतः कर्म-निर्जरा के लिए मात्र ताप ही पर्याप्त नहीं, उनके परिणामों-अध्यवसायों की निर्मलता एवं आत्मा के भेद-विज्ञान का चिंतन भी कर्मक्षय में प्रबल सहायक सिद्ध होता है।
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