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________________ ७५ . वर्ग ३ अध्ययन ८ - असह्यवेदना और मोक्ष गमन **************** *******kekekrkeekakakaks****************************** नहीं करते हुए, सुभेणं - शुभं, परिणामेणं - परिणामों से, पसत्थज्झवसाणेणं - प्रशस्त अध्यवसायों से, तयावरणिज्जाणं कम्माणं - तदावरणीय कर्मों को, खएणं - क्षय करके, कम्मरयविकिरणकरं - कर्म रज को झाड़ कर साफ कर देने वाले, अपुव्वकरणं - अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में, अणुप्पविट्ठस्स- प्रवेश करके, अणंते- अनंत - अन्त रहित, अणुत्तरेअनुत्तर, केवलवरणाणदसणे - श्रेष्ठ केवलज्ञान केवलदर्शन को, समुप्पण्णे - उत्पन्न किया। भावार्थ - सोमिल ब्राह्मण द्वारा सिर पर अंगारे रखे जाने से गजसुकुमाल अनगार के शरीर में महावेदना उत्पन्न हुई। वह वेदना अत्यन्त दुःखमयी, जाज्वल्यमान और असह्य थी। फिर भी गजसुकुमाल अनगार, सोमिल ब्राह्मण पर लेशमात्र भी द्वेष नहीं करते हुए समभाव पूर्वक सहन करने लगे। शुभ परिणाम तथा शुभ अध्यवसायों से तथा तदावरणीय (आत्मा के उन-उन गुणों को आच्छादित करने वाले) कर्मों के नाश से कर्म-विनाशक अपूर्वकरण में प्रवेश किया, जिससे उनको अनन्त (अन्त-रहित) अनुत्तर (प्रधान) निर्व्याघात (रुकावट रहित) निरावरण, कृत्स्न (सम्पूर्ण) प्रतिपूर्ण केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् सकल कर्मों के क्षय हो जाने के कारणं गजसुकुमाल अनगार कृतकृत्य बन कर 'सिद्ध' पद को प्राप्त हुए, जिससे वे लोकालोक के सभी पदार्थों के ज्ञान से 'बुद्ध' हुए। सभी कर्मों से छूट जाने से ‘परिनिर्वृत' (शीतलीभूतं) हुए। शारीरिक और मानसिक सभी दुःखों से रहित होने के कारण ‘सर्व दुःखप्रहीण' हुए अर्थात् गजसुकुमाल अनगार मोक्ष को प्राप्त हो गये। .. विवेचन - 'उज्जला जाव दुरहियासा' में 'जाव' शब्द से निम्न शब्दों का ग्रहण हुआ है - विउला - विपुल - बड़ी मात्रा वाली, पगाढा - प्रगाढ - गाढे अनुभाग वाली, कक्कसाकर्कश - कठोर, कडुया - कटुक - खारी, फरुसा - परुष - निर्दयता वाली, णिट्टरा - निष्ठुरबिना लिहाज वाली, चण्डा - चाण्डाल के समान अनुकम्पा रहित, प्रचण्ड, तिव्वा - तीव्र, दुक्खा - दुःख देने वाली, दुग्गा - दुर्ग-कठिनता से सही जाने वाली, जिसका वेदन कठिनाई से हो, दुरहियासा - काया से जिसे सहन करना अत्यंत मुश्किल है - ऐसी वेदना गजसुकुमाल के शरीर में उत्पन्न हुई। उस महान् वेदना को काया से अंगारे गिरा कर प्रतिकार करना तो दूर, सोमिल के सामने कुपित दृष्टि से देखना तो दूर, वचनों से कुछ भी कहना तो दूर, मन से भी ऊंचे नीचे भाव नहीं लाते हुए बहुत ही ऊंचे समभावों के साथ सहन किया। सोमा कन्या को कन्याओं के अन्तःपुर में रखा गया था। वह कुँवारी थी तथा सुरूपा भी थी। ऐसी रूप राशि की स्वामिनी जिसने कृष्ण महाराज को विस्मित कर दिया था। क्या गजसुकुमालजी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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