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१२९. साध्वी के लिए आचार्य-उपाध्याय पद-नियुक्ति-विषयक विधान AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAwakkakkakkar
कठिन शब्दार्थ-अप्पणो- अपना- स्वशरीर-विषयक, वायणं-वाचना, दलइत्तए-देना।
भावार्थ - १९३. साधुओं तथा साध्वियों को स्वशरीर-विषयक अस्वाध्यायात्मक स्थिति होने पर स्वाध्याय करना नहीं कल्पता। किन्तु परस्पर वाचना देना कल्पता है।
विवेचन - पिछले सूत्रों के विवेचन में बत्तीस अस्वाध्यायं कालात्मक स्थितियों का सूचन हुआ है, उनमें औदारिक का संबंध उन शारीरिक स्थितियों से हैं, जिनमें स्वाध्याय करना वर्जित है। इस सूत्र में स्वाध्याय प्रतिकूल दैहिक स्थितियों में स्वाध्याय का निषेध किया गया है। साधुओं के लिए उनकी देह में किसी व्रण या घाव से निरन्तर रिसते, निकलते पीप, मवाद या रुधिर की स्थिति यहाँ सूचित है। साध्वियों के लिए उपरोक्त कथा ऋतुधर्म या मासिक धर्म की स्थिति का संकेत है। इन दोनों ही प्रकार की स्थितियों में स्वाध्याय करने का निषेध किया गया है।
. आगमों की वाचना का प्रसंग यहाँ अपवाद के रूप में विहित हुआ है। आगम-वाचना चल रही हो, उनमें सहभागी किन्हीं साधुओं के व्रण आदि से पीप, रुधिर आदि निरन्तर निकल रहा हो एवं सहभागिनी साध्वियों में कतिपय मासिक धर्म में हों, इन स्थितियों को देखकर यदि वाचना को रोक दिया जाए तो आगमों के अध्ययन में व्यवधान होता है तथा उनके अतिरिक्त अन्य साधु-साध्वियों के आगमाध्ययन में विघ्न होता है। क्योंकि जहाँ बहुत से साधु-साध्वी वाचना ले रहे हों, वहाँ किन्ही-किन्हीं के ऐसी स्थितियों का होते रहना. संभावित है। अतः उनके कारण वाचना का निषेध नहीं किया गया है। वाचना का कार्यक्रम सतत चलता रहे, मुख्य रूप से यहाँ यह उद्दिष्ट है। ___ सूत्र में अपने अस्वाध्याय में वाचना देने का विधान है तो भी वाचना देना और लेना दोनों ही समझ लेना चाहिए। क्योंकि वाचना न देने में जो अव्यवस्था संभव रहती है, उससे भी अधिक अव्यवस्था वाचना न लेने में हो जाती है और अपने अस्वाध्याय में श्रवण करने की अपेक्षा उच्चारण करना अधिक बाधक होता है। अतः वाचना देने की छूट में वाचना लेना तो स्वतः सिद्ध है। फिर भी भाष्योक्त रक्त आदि की शुद्धि करने एवं वस्त्रपट लगाने की विधि के पालन करने का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
साध्वी के लिए आचार्य-उपाध्याय पद-नियुक्ति-विषयक विधान
तिवासपरियाए समणे णिग्गंथे तीसं वासपरियाए समणीए णिग्गंथीए कप्पड़ उवज्झायत्ताए उहिसित्तए ॥१९४॥
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