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________________ .. १३० - व्यवहार सत्र - सप्तम उद्देशक xxxxxxxxxxxxxxxxxkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk******************* पंचवासपरियाए समणे णिग्गंथे सट्ठिवासपरियाए समणीए णिग्गंथीए कप्पइ आयरिय(त्ताए)उवज्झायत्ताए उहिसित्तए॥१९५॥ कठिन शब्दार्थ - तिवासपरियाए - तीन वर्ष के दीक्षा-पर्याय से युक्त, तीसं वासपस्यिाए - तीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय से युक्त, पंचवासपरियाए - पाँच वर्ष के दीक्षापर्याय से युक्त, सट्ठिवासपरियाए - साठ वर्ष के दीक्षा-पर्याय से युक्त। भावार्थ - १९४. तीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय से युक्त साध्वी को तीन वर्ष के दीक्षापर्याय से युक्त साधु को उपाध्याय के रूप में स्वीकार करना कल्पता है। . १९५. साठ वर्ष की दीक्षा-पर्याय से युक्त साध्वी को पाँच वर्ष के दीक्षा-पर्याय से युक्त साधु को आचार्य या उपाध्याय के रूप में स्वीकार करना कल्पता है। विवेचन - इन सूत्रों के अनुसार उपाध्याय एवं आचार्य के नेतृत्व के बिना साध्वियों को रहना नहीं कल्पता। (यहाँ प्रवर्तिनी पद का भी अध्याहार माना जाना चाहिए।) इस संबंध में विशेष रूप से प्रतिपादित किया गया है कि यदि साध्वी तीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय से युक्त की हो तो भी उसे उपाध्याय के निर्देशन में रहना आवश्यक है। उपाध्याय न हो - कालधर्म को प्राप्त हो गए हों, गण में कोई अन्य दीर्घ दीक्षा-पर्याय युक्त साधु न हो तो वह साध्वी तीन वर्ष के दीक्षा-पर्याय से युक्त साधु को भी उपाध्याय के रूप में स्वीकार करे। साध्वी यदि साठ वर्ष के दीक्षा-पर्याय से युक्त हो तो उसके लिए पाँच वर्ष के दीक्षापर्याय से युक्त साधु भी आचार्य या उपाध्याय के रूप में स्वीकरणीय है। __ यद्यपि दीक्षा-पर्याय का महत्त्व अवश्य है, किन्तु स्त्रीत्व के नाते उनके लिए आश्रय, संबल या संरक्षण आवश्यक है। अत एव यहाँ अल्प दीक्षा-पर्याय युक्त साधु को भी आचार्य या उपाध्याय के रूप में निर्देशक स्वीकार करने का विधान किया गया है। 'निराश्रया न शोभन्ते पण्डिता वनिता लताः' नीतिकार की यह उक्ति यहाँ सार्थक घटित होती है। तीन वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाले को उपाध्याय बनाया जा सकता है। तीस वर्ष के दीक्षापर्याय वाली साध्वी भी उसे अपने उपाध्याय के रूप में स्वीकार कर सकती है। यहाँ पर तीस वर्ष उपलक्षण है, इससे न्यूनाधिक पर्याय वाली साध्वी भी उसे अपना उपाध्याय स्वीकार कर सकती है। इसी तरह अगले सूत्र में आचार्य के लिये ५ वर्ष एवं ६० वर्ष का समझना। इन सूत्रों से 'साध्वी बिना साधु की नेश्राय से नहीं रह सकती है, यह भी स्पष्ट होता है। इस प्रकार का भाव इस सूत्र का समझा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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