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________________ ११२ व्यवहार सूत्र - षष्ठ उद्देशक tattattatrakaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaxxxxxxxx १७१. ग्राम यावत् राजधानी में बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ भिक्षु को दोनों समय संयम के प्रति जागरूक रहते हुए एक प्राकार, द्वार एवं निष्क्रमण-प्रवेश मार्ग युक्त उपाश्रय में एकाकी प्रवास करना कल्पता है। - विवेचन - बहुश्रुतत्व एवं बहुआगमज्ञत्व का एक भिक्षु के जीवन में विशेष महत्त्व है। वैसा भिक्षु सावध के सतत वर्जन और संयम के परिशीलन में अल्पश्रुत और अल्पागम भिक्षु , की अपेक्षा सहज ही अधिक जागरूक रहता है। विपरीत परिस्थिति में जहाँ अल्पश्रुत, अल्पागमज्ञ भिक्षु का विचलित हो जाना आशंकित है वहाँ बहुश्रुत - बहुआगमज्ञ भिक्षु वैसी स्थिति में अपेक्षाकृत अधिक स्थिर एवं अविचल रहता है। उपर्युक्त दोनों सूत्रों में इसी आशय के अनुरूप एक प्राकारादि युक्त तथा अनेक प्राकारादि युक्त उपाश्रयों में बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ भिक्षु के प्रवास के संबंध में विधान है, जिसका अभिप्राय भावार्थ से स्पष्ट है। यदि कोई उपाश्रय, एक ही प्राकार - परकोटे से घिरा हुआ हो, उसके एक द्वार एवं प्रवेश करने और निकलने का एक ही मार्ग हो तो वहाँ स्थित भिक्षु में यदि कोई मनोविकार उत्पन्न हो जाए तथा वह वहाँ किसी अनुचित कार्य में तत्पर होने लगे तो उपाश्रय में आते हुए किसी भी व्यक्ति पर उसकी दृष्टि तत्काल पड़ जाती है और वह अपने अनुचित कार्य को छिपाने में तत्काल सावधान हो जाता है। यह सावधानी अपने दोष को ढकने के लिए होती है, इसलिए पापपूर्ण है। इसी स्थिति के कारण एक प्राकार, एक द्वार एवं एक निष्क्रमणप्रवेश के मार्ग से युक्त उपाश्रय में एकाकी रहना अधिक दोष पूर्ण बतलाया गया है। . जी उपाश्रय अनेक प्राकार, अनेक द्वार तथा अनेक निष्क्रमण-प्रवेश के मार्ग से युक्त हो, वहाँ विद्यमान मनोविकार युक्त भिक्षु यह सोचता हुआ कि न जाने कौन, किस मार्ग से आकर उसे देख ले, इस आशंका से वह अपनी प्रतिष्ठा मिटने के भय से अनुचित कार्य में संलग्नतत्पर रहने में सशंक और भयभीत रहता है। इस प्रकार उसका बाह्य दृष्ट्या पाप से अपेक्षाकृत बचाव हो जाता है। इसलिए एक प्राकारादि युक्त उपाश्रय की अपेक्षा अनेक प्राकारादि युक्त उपाश्रय में दोष की कम संभावना है। इसी दृष्टिकोण को लिए हुए यहाँ विवेचन हुआ है। यद्यपि भिक्षु सामान्यतः संयमाराधना में निश्चलभाव से तत्पर रहते ही हैं। किन्तु कदाचन मानवीय दुर्बलतावश कभी साधना-पथ से च्युत न हो जाए, अतः बाढ के आने से पहले ही बाँध बनाने जैसा यह सुरक्षामूलक कार्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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