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________________ १११ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ एकाकी भिक्षु के लिए वास-विषयक विधि-निषेध मार्ग का भी विवेचन है। निर्दोष, निर्वद्य, विशुद्ध संयम का पालन करने के लिए इन आगमों का अध्ययन परम आवश्यक है। जो वैसा करते हैं उन्हें कृतश्रुत, अधीतश्रुत या गीतार्थ कहा जाता है। जो वैसा नहीं करते वे अकृतश्रुत, अनधीतश्रुत या अगीतार्थ कहे जाते हैं। अगीतार्थ भिक्षुओं के एक प्राकार या अनेक प्राकार युक्त उपाश्रयों में संवास करने के संबंध में इन सूत्रों में निरूपण हुआ है। जिस उपाश्रय के एक ही प्राकार आदि हो तथा वहाँ संवास करने वाले भिक्षुओं में एक भी आचारप्रकल्पधर भिक्षु न हो तो वहाँ उनको एक रात भी रहना नहीं कल्पता। जहाँ अनेक प्राकार आदि युक्त उपाश्रय हो तथा तीसरी रात कोई आचारप्रकल्पधर भिक्षु आकर उनके साथ रहे तो उन्हें प्रायश्चित्त नहीं आता अर्थात् वैसे उपाश्रय में अधिक से अधिक दो रात रहना विहित है। तीसरी रात तभी रहना दोष रहित है, जब वहाँ कोई आचारप्रकल्पधर भिक्षु आकर उनके साथ रहें। ___ एक प्राकारादि युक्त उपाश्रय में आवागमन के एक ही मार्ग का होना तथा अनेक प्राकारादियुक्त उपाश्रयों में आवागमन के अनेक मार्गों का होना, वहाँ-वहाँ संवास करने वाले भिक्षुओं में जागरूकता या सावधानी पैदा करने की दृष्टि से क्रमशः न्यूनाधिक उपयोगिता लिए हुए है। अत एव भिक्षुओं के वहाँ संप्रवास में समय की मर्यादा में भिन्नता का उल्लेख है। एकाकी भिक्षु के लिए वास-विषयक विधि-निषेध से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा अभिणिव्वगडाए अभिणिदुवाराए अभिणिक्खमणपवेसणाए ( उवस्सए) णो कप्पइ बहुसुयस्स बब्भागमस्स एगाणियस्स भिक्खुस्स वत्थए, किमंग-पुण अप्पागमस्स अप्पसुयस्स?॥१७०॥ से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगणिक्खमणपवेसाए (उवस्सए) कप्पइ बहुसुयस्स बब्भागमस्स एगाणियस्स भिक्खुस्स वत्थए दुहओ कालं भिक्खु-भावं पडिजागरमाणस्स॥१७१॥ कठिन शब्दार्थ - किमंग-पुण - फिर क्या, दुहओ कालं - दोनों समय, भिक्खुभावं परिजागरमाणस्स - संयम के प्रति जागरूक रहते हुए। भावार्थ - १७०. ग्राम यावत् राजधानी में अनेक प्राकार, द्वार, निष्क्रमण प्रवेश मार्ग युक्त उपाश्रय में बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ भिक्षु को एकाकी वास करना नहीं कल्पता तो फिर अल्पभुत एवं अल्पागम भिक्षु की तो बात ही क्या है अर्थात् उसे तो कभी कल्पता ही नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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