SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुक्रपात का प्रायश्चित्त । kakakakakakakaaaaaaaaaaaaaa************** नीतिकार ने कहा है - कासारे स्फुटिते जले प्रचलिते पालिः कथं बध्यते। अर्थात् तालाब के फूट जाने पर, जल के बहने लग जाने पर फिर पाल कैसे बांधी जा सकती है? - इसका अभिप्राय यह है कि तालाब के फूटने तथा पानी के बहने लगने से पूर्व ही पाल बांधना सार्थक है। इसी प्रकार मानसिक विकृति एवं पतनोन्मुखता होने से पूर्व ही सावधानी रखने से संयम सम्यक् सुरक्षित रहता है। शुक्रपात का प्रायश्चित्त ___ जत्थ एए बहवे इत्थीओ य पुरिसा य पण्हावेंति तत्थ से समणे णिग्गंथे अण्णयरंसि अचित्तंसि सोयंसि सुक्कपोग्गले णिग्याएमाणे हत्थकम्मपडिसेवणपत्ते आवजइ मासियं . परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥ १७२॥ ___ जत्थ एए बहवे इत्थीओ य पुरिसा य पण्हावेंति तत्थ से समणे णिग्गंथे अण्णयसि . अचित्तंसि सोयंसि सुक्कपोग्गले णिग्याएमाणे मेहुणपडिसेवणपत्ते आवजइ चाउम्मासियं "परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ।।१७३॥ कठिन शब्दार्थ - जत्थ - जहाँ, एए - वे, इत्थीओ - स्त्रियाँ, पुरिसा - पुरुष, पण्हावेंति - प्रस्नुवन - मैथुन सेवन करते हों, तत्थ - वहाँ, अण्णयरंसि - अन्यतर - दूसरे, अचित्तंसि - अचित्त - चेतना रहित, सोयंसि - प्रवाहित होते हुए - स्खलित होते हुए, सुक्कपोग्गले - शुक्र-पुद्गल - वीर्य के पुद्गल (परमाणु-निचय), णिग्याएमाणे - निर्घातन - निष्कासन करता हुआ, हत्थकम्मपडिसेवणपत्ते - हस्तकर्म - हस्त मैथुन का सेवन करता हुआ, आवजइ - प्राप्त करता है, मासियं - मासिक, परिहारट्ठाणं - परिहार स्थान, अणुग्धाइयं - अनुद्घातिक, मेहुणपडिसेवणपत्ते - मैथुन प्रतिसेवन का संकल्प किए हुए। भावार्थ - १७२. जहाँ बहुत सी स्त्रियाँ और पुरुष मैथुन सेवन करते हों, वहाँ यदि कोई श्रमण निर्ग्रन्थ हस्तकर्म द्वारा अपने स्खलित होते हुए अचित्त वीर्य-पुद्गलों को निष्कासित करता है, वह मासिक अनुद्घातिक(गुरु)परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त का भागी होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy