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पारस्परिक सेवा-विषयक विधि-निषेध twittarikkuritiuiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiii आदान-प्रदान के व्यवहार से संबद्ध, अंतिए - समीप, आलोयणारिहे - आलोचनाह - आलोचना सुनने योग्य।
भावार्थ - १४९. जो साधु-साध्वी परस्पर उपधि आदि के लेन-देन के व्यवहार से संबद्ध हों, उन्हें परस्पर एक दूसरे से आलोचना करना नहीं कल्पता। ____यदि वहाँ (स्वपक्ष में) कोई आलोचना सुनने योग्य हो तो उसके समक्ष आलोचना करना कल्पता है।
यदि वहाँ (स्वपक्ष में) कोई आलोचना सुनने योग्य न हो तो उन्हें - साधु-साध्वियों को परस्पर आलोचना करना कल्पता है।
विवेचन - संयम के शुद्धिपूर्वक परिपालन, परिरक्षण के लिए जैन धर्म में आलोचना (आलोयणा) का विशेष रूप से विधान किया गया है। 'आ' उपसर्ग, 'लोच्' धातु तथा 'ल्युट' प्रत्यय के योग से आलोचना शब्द निष्पन्न होता है। "आ - समन्तात्, लोच्यतेदृश्यते यत्र, सा आलोचना।" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जहाँ व्यापक रूप में सूक्ष्मतापूर्वक प्रेक्षण किया जाता है, अपने द्वारा प्रतिसेवित प्रवृत्तियों के गुणावगुण को परखा जाता है, अपनी कमियों का अंकन किया जाता है, उनके लिए मन ही मन खेद अनुभव किया जाता है, वह आलोचना है। साधक के लिए ऐसा करना परम आवश्यक है। क्योंकि ज्ञात-अज्ञात रूप में हुई त्रुटियों का इससे परिमार्जन होता है, दोषों का प्रक्षालन होता है। बहिर्भाव में गत आत्मा स्वभाव में प्रत्यागत होती है।
आलोचना में योग्य व्यक्ति का साक्ष्य आवश्यक माना गया है, क्योंकि ऐसा होने से पुनः बहिर्भाव में गमन की आशंका नहीं रहती। साधु-साध्वियों के पारस्परिक आलोचना-विषयक विधि-निषेध का जो यहाँ वर्णन किया गया है, वह नैश्चयिक और व्यावहारिक - दोनों दृष्टियों से बहुत उपयोगी है।
पारस्परिक सेवा-विषयक विधि-निषेध जे णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया, णो ण्हं कप्पइ अण्णमण्णेणं वेयावच्चं कारवेत्तए, अस्थि याई ण्हं केइ वेयावच्चकरे कप्पइ ण्हं तेणं वेयावच्चं कारवेत्तए, णत्थि याइं ण्हं केइ वेयावच्चकरे एव ण्हं कप्पइ अण्णमण्णेणं वेयावच्चं कारवेत्तए॥१५०॥
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