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________________ व्यवहार सूत्र - पंचम उद्देशक १०२. *aaa***amakadataatatakakkakakakakakakakakakakt ************ - कठिन शब्दार्थ - कारवेत्तए - कराना, वेयावच्चकरे - वैयावृत्य कर - सेवापरिचर्या करने वाला या सेवा-परिचर्या करने वाली। .. भावार्थ - १५०. जो साधु-साध्वी उपधि आदि वस्तुओं के परस्पर लेन-देन से संबद्ध हों उन्हें परस्पर सेवा-परिचर्या कराना नहीं कल्पता। ___ यदि अपने पक्ष में कोई सेवा-परिचर्या करने वाला साधु या सेवा-परिचर्या करने वाली साध्वी हो तो उसी से वैयावृत्य करवाना कल्पता है। यदि अपने पक्ष में कोई वैयावृत्य करने वाला या करने वाली न हो तो उन्हें - साधुसाध्वियों को परस्पर एक-दूसरे से वैयावृत्य कराना कल्पता है। विवेचन - यद्यपि साधु और साध्वियाँ अपना-अपना कार्य स्वयं अपने हाथों से ही करें, ऐसा विधान है। क्योंकि उनका जीवन स्वावलम्बिता एवं आत्म-निर्भरता पर अवस्थित होता है, किन्तु यदि शरीर में रुग्णता, अस्वस्थता या दुर्बलता आ जाए तो व्यक्ति के लिए अपने दैनन्दिन कार्य स्वयं कर पाना कठिन होता है, किसी अन्य से सहयोग या सेवा लेना आवश्यक होता है। इस संबंध में यहाँ जो वर्णन आया है, वह साधना की पवित्रता और व्यवहार की समीचीनता की दृष्टि से बड़ा उपादेय है। - साधुओं में यदि कोई साधु बीमार हो जाए, अपने रोजमर्रा के काम करने में अशक्त हो जाए तो वह साधुओं में से ही किसी से, जो सेवा करने में सक्षम हो, निपुण हो, सेवा ले, साध्वियों में से किसी से नहीं, क्योंकि ऐसा होने से पारस्परिक संपर्क और सामीप्य बढता है, जो मोहोत्पत्ति का हेतु बन सकता है। लोक-व्यवहार में भी लिंगभेद के कारण यह समुचित प्रतीत नहीं होता।.. __ यही बात साध्वियों पर भी लागू है। उनमें भी कोई अशक्त, अस्वस्थ हो जाए तो वह साध्वियों में से ही, जो सेवा करने में सक्षम हो, निपुण हो, उसी से सेवा ले साधु से नहीं। यदि ऐसी स्थितियाँ न हों, स्वपक्ष में कोई ऐसा न हो, जो सेवा करने में दक्ष हो, निपुणतापूर्वक परिचर्या कर सके तो अपवाद के रूप में साधु-साध्वियों से वैयावृत्य करा सकते हैं तथा साध्वियाँ - साधुओं से वैयावृत्य करा सकती हैं। सांप डस जाने पर उपचार-विषयक विधान णिग्गंथं च णं राओ वा वियाले वा दीहपट्टो लूसेज्जा, इत्थी वा पुरिसस्स ओमावेजा पुरिसो वा इत्थीए ओमावेजा, एवं से कप्पइ, एवं से चिट्ठइ, परिहारं च से ण( णो) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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