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________________ ८९ दीक्षा-ज्येष्ठ का अग्रणी-विषयक विधान kakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk हो - रत्नाधिक हो, उसे उपसंपन्न - अधिकार संपन्न या अग्रणी मानकर विचरण करना कल्पता है। . १२८. बहुत से गणावच्छेदक यदि एक साथ विहार करते हों - विचरते हों तो उन । सबको अपने-अपने को उपसंपन्न - बराबर मानकर विचरण करना नहीं कल्पता, किन्तु उनमें जो. रत्नाधिक हो - दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हो, उसे उपसंपन्न - अधिकार संपन्न या अग्रणी मानकर विचरण करना कल्पता है। १२९. बहुत से आचार्य अथवा उपाध्याय यदि एक साथ विहार करते हों - विचरते हों तो उन सबको अपने-अपने को उपसंपन्न - समानाधिकार संपन्न या बराबर मानकर विचरण करना नहीं कल्पता, किन्तु उनमें जो रत्नाधिक हो - दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हो, उसे उपसंपन्नअधिकार संपन्न या अग्रणी मानकर विचरण करना कल्पता है। १३०. बहुत से भिक्षु, बहुत से गणावच्छेदक तथा बहुत से आचार्य या उपाध्याय यदि एक साथ विहार करते हों - विचरते हों तो उन सबको अपने-अपने को उपसंपन्न-समानाधिकार युक्त या बराबर मानकर विचरण करना नहीं कल्पता, किन्तु उनमें जो रत्नाधिक हो - दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ हो, उसे उपसंपन्न - अधिकार सम्पन्न या अग्रणी मानकर विचरण करना कल्पता है। विवेचन - जहाँ एक से अधिक - दो या बहुत से भिक्षुओं, गणावच्छेदकों, आचार्यों या उपाध्यायों के एक साथ विचरने का प्रसंग बने, वहाँ वे सभी अपने-अपने को समानाधिकार युक्त मानकर न चलें, क्योंकि जहाँ एक से अधिक हों, वहाँ किसी एक का नेतृत्व या निर्देशन मानकर चलना - विहरण करना आवश्यक है। इससे जीवन अनुशासन बद्ध, नियमित और व्यवस्थित रहता है, अन्यथा जीवन में स्वच्छन्दता का आना आशंकित है। नेतृत्व या निर्देशन उन्हीं का स्वीकार किया जाए, जो रत्नाधिक हों - दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हों। जैसा कि पहले यथाप्रसंग विवेचन किया गया है, जैन धर्म में ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना का - संयम जीवितव्य का सर्वाधिक महत्त्व है। उसी में आध्यात्मिक साधना की प्राण-प्रतिष्ठा है। अत एव दीक्षा ज्येष्ठता को ही प्रामुख्य या प्रमुखता का आधार माना गया है। ॥व्यवहार सूत्र का चौथा उद्देशक समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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